Saturday, January 5, 2019

"ये भी सही, वो भी सही" वाले समाज सेवकों से सावधान


बहुजनों व ब्रहम्णी रोगी गैर-बहुजनों के संदर्भ में, हम इस बात से सहमत हैं कि हम सभी भारत के नागरिक है! हम सब को साथ मिलकर रहना है! इसलिए हम सब को साथ मिलजुल कर रहना चाहिए।

फिलहाल, बहुजन (ओबीसी-एससी-एसटी व कन्वर्टेड मायनॉयरिटीज) तो सबके साथ मिलजुल कर रहने को तैयार हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या गैर-बहुजन (सवर्ण) समाज इसके लिए तैयार है? बहुजन समाज तो सतत् जाति-तोड़क आन्दोलन चला रहा है लेकिन क्या सवर्ण अमानवीय जाति की बेडियों को तोडना चाहेगा?

बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर रचित "एनिहिलैशन ऑफ कॉस्ट" के मुताबिक "जाति को बनायें रखने व जाति को तोड़ने", दोनों की जिम्मेदारी सवर्णों पर ही है। हमारा भी स्पष्ट मानना है कि रीति-रिवाज, परम्परा आदि समाज के सम्पन्न तबकों द्वारा ही अपना कर शुरू की जाती हैं, और उसी तबके द्वारा बहिष्कार कर खत्म भी की जाती है! ये स्थापित हो चुकी सच्चाई है कि जाति व्यवस्था भी समाज का अहम हिस्सा ही नहीं, लोगों की जीवन-शैली का सबसे महत्वपूर्ण अंग बन चुका है।

ऐसे में जाति व्यवस्था के चलते ही स्वघोषित उच्च जातियों ने सदियों से समाज पर अपनी उच्चता, पवित्रता, विद्वता बनाये रखा है। जिसके चलते इनका बिना किसी मेहनत के ना सिर्फ इनका बेहतरीन जीवन यापन हो रहा है बल्कि ये समाज पर हुकूमत कर रहे हैं। अमानवीय जातीय उच्चता के चलते चंद मुट्ठीभर लोग बहुजनों की सोच व उनकी जीवन-शैली पर नियंत्रण कायम कर रखा है। ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि जाति व्यवस्था के चलते गैर-बराबरी वाले समाज में सबसे ऊंचे पायदान बैठा हुक्मरान तबका क्या स्वतः जाति व्यवस्था को खत्म करना चाहेगा? नहीं, बिल्कुल नहीं।

ऐसे में, शिकारी (ब्रहम्णवादियों) को समझाकर शिकार व शिकारी के बीच में सामंजस्य की अपील करने वाले स्वघोषित समाज सेवी व बुद्धिजीवी-चिंतक लोग अपने आपको निष्पक्ष व प्रगतिशील सिद्ध करने की जद्दोजहद मात्र कर रहे हैं। ऐसे बुद्धिजीवी-चिंतक गिरोह का मक़सद बहुजन आन्दोलन को आगे जाना नहीं, बल्कि ये लोग बहुजन व गैर-बहुजन के बीच की वो कड़ी बनना चाहते हैं जिसकी पैठ दोनों ग्रुप में हो। ऐसे लोग ब्रहम्णवाद के स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद हैं और बहुजन आन्दोलन के लिए स्पष्ट तौर पर हानिकारक है।

कुछ ऐसे स्वघोषित समाज सेवी व विद्वान देश की प्राइवेट यूनिवर्सिटीज, जिसमें उच्च जातीय व रईसों के बच्चें पढ़ते है, के बच्चों से मिलते है, आरक्षण व दलितों का हालत समझाते है, और कहते है कि बच्चे बहुत मेहनती होते है, बहुत सवाल पूछते हैं, बहुत इंटेलिजेंट होते है, बहुत अटेंटिव होते है, बहुत क्रिएटिव होते है, आदि। ऐसे लोगों से हमारा सवाल ये है कि आप समझा किसको रहें है, किसकी और क्या तारीफ कर रहें है? आप जिन प्राइवेट विश्वविद्यालों की ये तारीफ करते हुए थकते नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में कौन है, इसके पदों पर कौन लोग बैठे है, ये किस समाज के बच्चों को पढ़ा रहें है, और आप किसको समझा रहें है। क्या इन बच्चों का समाज के उन मुद्दों से कभी कोई साक्षात्कार रहा है या क्या भविष्य में ऐसा कुछ होने की कुछ भी सम्भावना है।

ऐसे आप उन चंद सवर्ण धन्ना सेठों के बच्चों, जिनका आरक्षण और बहुजनों के हालात व उनके हकों से कोई सरोकार नहीं है, को क्यों समझा रहें है? इससे क्या हासिल होगा? इससे बहुजन आन्दोलन को क्या फायदा होगा? इससे बहुजनों के मनोबल पर किस तरह का सकारात्मक फर्क पड़ेगा? ऐसे जगहों पर जाकर आप अपनी ऊर्जा खर्च किसके लिए खर्च रहें है? क्यों ना, यही ऊर्जा व समय १५ फीसदी सवर्णों के दिल में बहुजनों के लिए रहम पैदा करने बजाय ८५ फीसदी वाले शोषित बहुजनों को उनके अधिकारों और सरोकारों के प्रति जागरूक करने में खर्च किया जाय जिससे कि बहुजन अपने हक़ खुद लड़कर ले सके। आखिर कब तक आप गुलाम मानसिकता वाली अवस्था में बने रहोगें? हक़ माँगने या किसी के रहम के चलते नहीं मिल सकते है। इसके लिए खुद लड़ना पड़ेता है। इसलिए हमारा स्पष्ट मानना है कि अपनी ऊर्जा मुट्ठीभर सवर्णों के दिलों में बहुजनों के लिए रहम पैदा करने के बजाय बहुजनों को वैचारिक तौर पर जोड़कर वैचारिक जंग के लिए तैयार करने में खर्च करना ज्यादा बेहतर होगा।  

हमारे निर्णय में, ऐसे स्वघोषित समाज सेवी लोग जिन सवर्णों के बच्चों को आरक्षण का मायने सिखलाते है, दलितों की जिन्दगीं से अवगत कराते है, जिनके बीच जाकर अपनी ऊर्जा व समय खर्च करते है, क्या हकीकत में उन सवर्ण धन्ना सेठों के बच्चों का उन सभी दलित-बहुजन मुद्दों से कोई सरोकार है? सनद रहें, आप जिनकी इतनी तारीफ करते है ये वहीं बच्चें है जो आरक्षित वर्ग के अंतिम चयनित बच्चे के एक-चौथाई से भी कम, यहाँ तक कि जीरों,  मार्क्स लाते है और अपनी दौलत की बदौलत इंजिनीरिंग, मेडिकल, लॉ, रिसर्च आदि की सीटें खरीद लेते है। क्या आप उनकों अपनी हालत समझाकर उनके दिलों में अपने लिए रहम जगाना चाहते हैं? क्या बहुजन उनके रहम-ओ-करम पर पलेगा?

बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि बहुजनों की लड़ाई उनके मूलभूत मानवाधिकारों, समाज में सम्मानपूर्वक जीने की लड़ाई हैं। ये सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के लिए लड़ी जा रही जंग है। ये "ब्रहम्णवाद बनाम अम्बेडकरवाद" का वैचारिक द्वन्द है। ये लड़ाई घालमेल करके नहीं लड़ी जा सकती है। इसलिए वैचारिकी की ये जंग आर-पार की जंग ही होनी चाहिए।

इसलिए जो लोग "ये भी सही वो भी सही" की बात करते हैं, ऐसी बहस में लिप्त है, या ऐसी विचारधारा व सोच को प्रोत्साहित कर रहे हैं वो लोग सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के खिलाफ है और वो यथास्थिति (ब्रहम्णवाद की सत्ता) बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहने की ज़रूरत है। ऐसे लोगों का ब्रहम्णी फिरके में होना सामान्य बात है लेकिन दु:खद यह है कि क्षाणिक स्वार्थ के लिए ऐसे ही कुछ लोग बहुजन समाज में पैदा हो रहे हैं। बहुजनों के बीच पैदा हो रहा ये तबका बहुजन आन्दोलन के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।

रजनीकान्त इन्द्रा
एल.एल.एम छात्र
जनवरी ०५, २०१८

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