Wednesday, January 9, 2019

10 % सवर्ण आरक्षण ?


रॉफेल घोटाला, जनधन घोटाला, कृषि विकास पत्र घोटाला, नोटबदळी घोटाला, ईबीएम घोटाला, दलित-आदिवासी-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों व नारी समाज के साथ हो रहे अत्याचार, जातिवादी भेदभाव, अनाचार, भ्रस्टाचार, ब्राह्मणी आतंकवाद, संविधान की निर्मम हत्या जैसे तमाम जघन्य कुकृत्यों को छिपाने और तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) में मिली करारी शिकस्त से बौखलाई ब्राह्मणी आरएसएस के नेतृत्व वाली ब्राह्मणी रोगी बीजेपी ने अपने नगें बदन को छुपाने के लिए संविधान असंगत आर्थिक आधार वाले १० % सामान्य वर्ग आरक्षण रुपी अपने गंदे हाथों का इस्तेमाल किया है।

आम चुनाव २०१९ के मद्देनज़र मौजूदा परिस्थिति में उम्मीद है कि लगभग सभी राजनैतिक दल अपने राजनैतक लाभ के लिए नंगीं बीजेपी की इज़्ज़त बचने में अपनी राजनैतिक नैतिकता का प्रदर्शन जरूर करेगें। ऐसे में बहुत कम या यूं कहें कि किसी से भी इस समय संविधान की मूल भावना के ख्याल की उम्मीद करना गलत ही होगा। फ़िलहाल, राजनैतिक मजबूरियों के परे आरक्षण के सन्दर्भ में बहुत से सवाल है।

पहला, क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है?

संविधान व संविधान के पिता बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर की मंशा अनुरूप संविधान प्रदत्त आरक्षण का मतलब है - "देश की सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर समाज के हर तबके को उसकी आबादी के अनुपात में समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी"। संविधान के अनुच्छेद १५ (४) और १६ (४) के अनुसार सामाजिक और शैक्षिण पिछड़ेपन के कारण जिस पिछड़े वर्ग को और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जन-जातियों का देश की शासन-सत्ता व संसाधन के क्षेत्र में समुचित उनका प्रतिनिधित्व नहीं है उनकों आरक्षण द्वारा उनके मूलभूत लोकतान्त्रिक अधिकार को पूरा किया जाता है। ये सामाजिक और शैक्षिण पिछड़ापन व ओबीसी-एससी-एसटी जातियों के साथ हुए एवं और भी निकृष्टतम रूप से जारी हर अत्याचार व अनाचार का आधार जाति रही है। इन सबके चलते सामाजिक व शैक्षिण रूप से पिछड़ा ओबीसी-एससी-एसटी समाज का देश की शासन-सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर उनका प्रतिनिधित्व नहीं है। इसलिए संविधान में सामाजिक और शैक्षिणक पिछड़ेपन के आधार पर ओबीसी-एससी-एसटी को आरक्षण मिलता है। कहने का आशय यह है कि आरक्षण देश की शासन-सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर सामाजिक व शैक्षिण रूप से पिछड़े ओबीसी वर्ग और एससी-एसटी के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी को तय करने का सबसे अहम् संवैधानिक व लोकतान्त्रिक हक़ है, ना कि इनकम जनरेशन या फिर नरेगा जैसा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम। गरीबी उन्मूलन के लिए संविधान के पार्ट-४ में अनुच्छेद ३८ से ४८ तक बहुतेरे प्रावधान है। इसलिए जातिवादी भारतीय समाज में गरीबी आरक्षण का आधार कभी नहीं हो सकता है। यदि गरीबी की वजह से से कोई पढ़-लिख नहीं पा रहा है तो ये स्टेट की जिम्मेदारी है कि वो उनकों रहने, पढ़ने के लिए सबसे पहले एक सामान शिक्षा व्यवस्था लागू करे, अच्छे-अच्छे स्कूल स्थापित करवाए, छात्रवृत्ति प्रदान करे। याद रहें, आरक्षण देश की सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर समाज के हर तबके को उसकी आबादी के अनुपात में समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी है, गरीबी उन्मूलन प्रोग्राम नहीं। इसलिए आर्थिक आधार पर दिए जाने वाला आरक्षण संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

दूसरा, बिना किसी ठोस पड़ताल के सरकार को कैसे पता चला कि देश में गरीब सवर्णों व अन्य को १०% आरक्षण की जरूरत है? ये आकड़ा कहाँ से आया ? ऐसे में ये कहना उचित होगा कि ये फैसला पूरी तरह से आम चुनाव २०१९ के मद्देनज़र किया गया एक बेवकूफी भरा निर्णय है। यदि गरीबी जाति देखकर नहीं आती है तो सरकार को ये बताना चाहिए कि राशन के लिए गरीबी अलग, और नौकरी के लिए गरीबी का पैमाना अलग क्यों है? आठ लाख या कम की इनकम, पांच या इससे कम एकड़ की जमीन आदि, और इनकम टेक्स देने वाला आर्थिक तौर पर गरीबी कैसे मान लिया गया है ? ये कोर्ट ऑफ़ लॉ में कैसे स्टैंड करेगा?

तीसरा, आर्थिक आधार लागू होने वाले १० % सामान्य वर्ग आरक्षण के चलते इंदिरा साहनी केस के नौ जजों के फैसले द्वारा तय की गयी ५०% की सीमा पार हो जाती है। अदालत ने कहा है कि आर्थिक पिछड़ापन ही आरक्षण का आधार नहीं हो सकता है। इसलिए भी ये आर्थिक आधार वाला आरक्षण कोर्ट ऑफ़ लॉ में स्टैंड नहीं कर पायेगा।

चौथा, सुप्रीम कोर्ट और अन्य उच्च न्यायलय बार-बार कह चुके है कि आरक्षण उनकों दिया जाता है जो सामाजिक और शैक्षिण रूप से पिछड़े है, और जिनका प्रनिधित्व या तो कम है या फिर नहीं है। जबकि सवर्ण व अन्य के सन्दर्भ में देखें तो हम पातें है कि ये लोग देश की सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर ओवर-रिप्रेजेंटेड हैं। ऐसे में इनकों अलग से किसी भी आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए भी ये संविघान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।

पांचवा, एनडीए-२ के इस फैसले से पहले भी कई बार आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग को उच्च न्यायपालिका ने खारिज कर दिया है। जैसे- साल 1978 में बिहार में पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण मिलने के बाद सवर्णों को भी तीन फीसदी आरक्षण दिया गया। कोर्ट ने इस व्यवस्था को नहीं माना और सवर्णों का आरक्षण खत्म कर दिया। साल 1990 में 13 अगस्त को मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई।  इसके बाद पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिया, मगर साल 1992 में अदालत ने उनके इस फैसले को खारिज कर दिया। अप्रैल, 2016 में गुजरात सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 फीसदी कोटा दिया। अगस्त 2016 में गुजरात हाईकोर्ट ने इसे गैरकानूनी और असंवैधानिक बताकर खत्म कर दिया। साल 2014 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार का मराठों को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला पलट दिया है। राजस्थान सरकार ने स्पेशल बैकवर्ड क्लास को 14 फीसदी कोटा देते हुए 50 फीसदी की सीमा को पार किया था, ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट के सामने आया और आरक्षण खारिज हो गया।

छठा, आर्थिक आधार पर १०% सवर्ण आरक्षण का बहुजन समाज के लिए क्या मायने है ?

हमारे विचार से, विविधता पूर्ण व जाति में बटे भारतीय समाज में लोकतंत्र का मतलब है - जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। 

इस तरह से ओबीसी-एससी-एसटी को उसकी आबादी के अनुसार ही उसे देश की शासन-सत्ता व संसाधन में उसको उसका अपना समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का अधिकार सुनिश्चित होना  चाहिए।

फ़िलहाल, हमें १०% आर्थिक आधार वाले ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य आरक्षण से इनका सबका कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा है। ऐसे में हमें पूरी उम्मीद है कि खुद ब्राह्मण लोग ही इस आरक्षण का विरोध करेगें, और ४९.५०% आरक्षित श्रेणी में ही ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य आरक्षण की मांग करेंगें। इससे पहले भी ब्राह्मणी रोगियों से भरा सुप्रीम कोर्ट-संसद ओबीसी के ही श्रेणी में ट्रांसजेंडर्स व विकलांगों को शामिल कर ओबीसी के आरक्षित दायरे में सेंध लगा चुका है, जिसका आज तक पूरा फायदा ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य अनारक्षित वर्ग के ट्रांसजेंडर्स व विकलांगों को ही मिला है, किसी एससी-एसटी-ओबीसी के ट्रांसजेंडर या विकलांग को नहीं। लेकिन, गहरी नींद में सो रहें ओबीसी समाज ने इस बात का कभी विरोध नहीं किया। हमारा सवाल यह है कि यदि ओबीसी वर्ग में ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य अनारक्षित वर्ग के ट्रांसजेंडर्स व विकलांगों को शामिल किया गया तो बढ़ी आबादी के मद्देनज़र ओबीसी का कोटा क्यों नहीं बढ़ाया गया? इससे भी आश्चर्य व दुःख की बात ये है कि ओबीसी व इसके नेताओं और बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया?

फ़िलहाल, ऐसे में यदि उच्च न्यायपालिका के ब्राह्मणी रोगी जज अपने ५०% वाले बैरियर तो तोड़ते है तो जहाँ एक तरफ उच्च न्यायपालिका के जजों की ब्राह्मणी मंशा को फिर एक बार प्रमाणित करेगा तो वही दूसरी तरफ ओबीसी-एससी-एसटी को उसकी आबादी के अनुपात में उसके समुचित प्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का रास्ता खुल जायेगा। बस, जरूरत है बहुजन समाज, खासकर ओबीसी, को अपने संवैधानिक व लोकतान्त्रिक हक़ के लिए एक बार सड़क पर उतरना होगा। ये बहुजन समाज के बहुत अहम् मौका होगा।

बहुजन समाज के आरक्षण को नकारने वाले, कमजोर करने वाले, रिज़र्वेशन इन प्रोमोशन का माखौल बनाने वाले उच्च न्यायपालिका पर कब्ज़ा जमाये ब्राह्मणी रोगी जजों की तानाशाही व एकछत्र राज का अंत कर न्यायपालिका में संविधान सम्मत व मान्यवर काशीराम साहेब की मंशा के अनुरूप आरक्षण का प्रावधान लागू करवाने का अहम् मौका होगा। यह देश की प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण को मुकम्मल तौर लागू करवाने का सबसे बेहतरीन मौका होगा। बहुजन समाज, खासकर ओबीसी, को अपने हक़ के लिए सड़क पर उतरना ही होगा। इसी में सकल बहुजन समाज और भारत देश तथा राष्ट्रवाद के हक़ में होगा। 

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