Thursday, July 16, 2020

ब्राह्मणवादी प्रोपेगंडा और बहुजन एकता का संकट

दुखदायी किन्तु यथार्थपरक यह तथ्य है कि जब शोषित वर्ग अपने शोषणकर्ताओं के विरुद्ध स्वर बुलंद करता है, तब समाज का प्रभावशाली तबका शोषितों को ही दोषारोपण करके कटघरे में खड़ा कर देता है और उनके चरित्र में त्रुटियाँ खोजने का प्रयास करता है। यह एक शाश्वत विडंबना रही है कि शोषण के शिकार को ही उसके दुखों का कारण ठहराया जाता है, न कि उस व्यवस्था को, जो इस शोषण को जन्म देती है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपनी कालजयी कृति अनहिलेशन ऑफ कास्ट (1936) में इस प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए लिखा था, "जाति व्यवस्था शोषण का आधार है, और जब शोषित इसके खिलाफ विद्रोह करते हैं, तो शोषक वर्ग उन्हें ही अपराधी ठहराता है।" यही कारण है कि असमानता से युक्त समाज में जब बहुजन समुदाय समता और न्याय की स्थापना के लिए संनाद करता है, तब असमानता के पोषक तथा ब्राह्मणवादी विचारधारा से संदूषित व्यक्ति दलित-बहुजन समाज को ही लक्ष्य बनाते हैं। वे यह दावा करते हैं कि जो दलित नौकरीपेशा बन गए हैं, वे अपने ही समाज के निर्धन बंधुओं के प्रति भेदभाव का व्यवहार करते हैं। यह कथन प्रथम दृष्टया सतही रूप से सत्य प्रतीत हो सकता है, किन्तु इसका मूल उद्देश्य दलितों के मध्य फूट डालना है, के एक हिस्से को एक औजार के रूप में उपयोग कर ब्राह्मणवाद की जड़ों को और सुदृढ़ करना है। इस प्रकार के कथनों के माध्यम से ब्राह्मणवादी समर्थक, बहुजन-दलित समाज में उभर रही एकता को विखंडित करने का कुत्सित प्रयास करते हैं, जो एक सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा है।

यदि इस विषय पर गहन चिंतन और सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि नौकरीपेशा दलितों पर लगाया गया यह आरोप कि वे अपने निर्धन दलित बंधुओं से दूरी बनाए रखते हैं, केवल सतही स्तर पर ही सत्य प्रतीत होता है। किन्तु जब इसकी गहराई में जाकर मूल्यांकन किया जाता है, तो यह तथ्य उजागर होता है कि नौकरीपेशा दलित-बहुजन भी उसी निर्धन बहुजन समाज का अभिन्न अंग हैं। उनकी उत्पत्ति, उनकी जड़ें, उनका सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश उसी निर्धन दलित-बहुजन समाज से संनादित है। प्रख्यात समाजशास्त्री गेल ओमवेट ने अपनी पुस्तक दलित विज़न (1995) में इस संदर्भ में लिखा है, "दलित समाज के भीतर आर्थिक असमानता हो सकती है, किन्तु उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक एकता उनकी मूल पहचान से जुड़ी होती है।" ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि वे अपने ही समाज से विमुख कैसे हो सकते हैं? अपने उन बंधुओं से, जिनके दुख-दर्द से वे स्वयं परिचित हैं, भेदभाव कैसे कर सकते हैं? क्या यह संभव है कि वे अपने ही मूल से घृणा करें या उससे दूरी बनाए रखें? वास्तव में, यह आरोप केवल एक भ्रामक प्रचार का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य बहुजन समाज के भीतर संदेह और अविश्वास के बीज बोना है। यह प्रचार न केवल बहुजन सामाजिक एकता को कमजोर करता है, बल्कि उस संघर्ष को भी प्रभावित करता है, जो समानता की नींव रखने के लिए किया जा रहा है।

इस संदर्भ में, दलित-बहुजन समाज के मध्य निर्मित हो रही एकता को अक्षुण्ण रखने के लिए ब्राह्मणवादी प्रोपेगंडा से सजग और सतर्क रहना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। यह प्रोपेगंडा अत्यंत सूक्ष्म किन्तु प्रभावशाली ढंग से समाज में विभाजन उत्पन्न करने का माध्यम बन सकता है। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने अपनी पुस्तक चमचा युग (1982) में इस खतरे को रेखांकित करते हुए कहा था, "शोषक वर्ग हमेशा शोषितों को आपस में लड़ाने का प्रयास करता है ताकि उनकी एकता टूटे और उनका शोषण बना रहे।" यह एक ऐसी चुनौती है, जो न केवल बहुजन समाज की एकजुटता को कमजोर करने का प्रयास करती है, अपितु उनके न्याय और समानता के संघर्ष को भी क्षीण करने का दुस्साहस रखती है।

अतः इस कुटिल प्रचार के विरुद्ध जागरूकता उत्पन्न करना और संगठित प्रयासों के माध्यम से इसकी जड़ों को उखाड़ फेंकना समय की मांग है। यह एकता ही वह शक्ति है, जो असमानता की दीवारों को ध्वस्त करने और एक समतामूलक समाज की नींव रखने में सक्षम होगी। इस दिशा में सतत सावधानी, सामूहिक चेतना और दृढ़ संकल्प ही वह मार्ग है, जो बहुजन समाज को उसके लक्ष्य तक पहुँचाएगा। जैसा कि डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपने प्रेरक शब्दों में कहा था, "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" – यह सूत्र ही इस संदर्भ में मार्गदर्शक बन सकता है। इस संकल्प के साथ ही बहुजन समाज न केवल इस प्रोपेगंडा का प्रतिकार कर सकेगा, बल्कि एक न्यायपूर्ण और समान समाज की स्थापना के अपने स्वप्न को भी साकार कर सकेगा।

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