भारत एक लोकतांत्रिक देश है लेकिन भारत का ये लोकतंत्र सिर्फ और
सिर्फ एक दिन का वोटिंग बनकर रह गया है। अंग्रेजों की हुकूमत के दौरान भारत में जो
लोकतान्त्रिक नीव पकड़ रही थी जिसमे देश के हर तबके को भागीदारी और
स्वप्रतिनिधित्व की बात बनी थी जिससे भारत की सामाजिक गुलामी से मुक्ति हो जाती,
उस लोकतान्त्रिक अधिकार को षड्यंत्रकारी मोहनदास करमचंद गाँधी जी ने आमरण
उपवास करके छीन लिया था।
लोकतंत्र का मतलब होता है देश की हुकूमत और मिलकियत में देश के हर
तबके की लोकतान्त्रिक भागीदारी। देश की सत्ता, संसद, न्यायपालिका, नौकरशाही,
विश्वविद्यालय, उद्योगालय, मीडियालय, सिविल सोसायटी और अन्य सभी जगहों पर देश हर
तबके की न्यायोचित लोकतान्त्रिक हिस्सेदारी लेकिन लोकतान्त्रिक मूल्यों को तो
गाँधी जी ने आमरण उपवास करके छीन लिया था। रही बात लोकतंत्र के ठठरी की
तो उसको सत्ता और संसाधन के हर क्षेत्र के हर स्तर पर अवैध, असंवैधानिक और
अलोकतान्त्रिक रूप से कब्ज़ा जमाये बैठे ब्राह्मणी और अन्य सवर्णों की झुण्ड
ने छीन रखा है। लोकतंत्र में सभी को आवाज़ उठाने का हक़ होता है लेकिन वंचित जगत के
इस अधिकार भी छीना जा रहा है, दबाया जा रहा है।
आज वंचित समाज अपने अधिकारों और हकों के लिए जद्दोजहद कर रहा है।
मीडियालय वंचित जगत की आवाज को दबाने पर तुला है। जब भी वंचित जगत का कोई मुद्दा
सामने आता है तो पहले उसे दबाने की भरपूर कोशिस की जाती है लेकिन वंचित जगत के बल
के सामने घुटने टेक देने के बाद षड्यंत्र होता है जिसके तहत वंचित जगत के
मुद्दों पर चर्चा करने के लिए, वंचित जगत की आवाज़ को बुलंद करने के लिए, वंचित जगत
की पीड़ा को बयान करने के लिए, वंचित जगत के नेता या लोगों को सामने लाने के बजाय
ब्राह्मण उनके नुमाइंदे बन जाते है, क्यों ? क्या लोकतंत्र में वंचित जगत को अपनी
आवाज खुद उठाने का कोई हक़ नहीं है या फिर वंचित जगत आज भी इस लायक नहीं हुआ कि
ब्राह्मणों-बनियों की मुख्यधारा वाले चैनलों व अख़बारों में अपनी बात खुद रख सके ?
जब वंचित समाज अपनी माँगों को प्रखर आवाज दे सकता है, अपने मुद्दों पर बेख़ौफ़
बेबाकी से अपनी बात रख सकता है, सरकार बनाकर बेहतर प्रशासन चला सकता है तो ऐसी
क्या वजह है कि वो टीवी के स्टूडियोज़ में अपनी बात नहीं रख सकता है? तथाकथित मुख्यधारा
मीडिया वंचित जगत को अपनी आवाज़ खुद बुलंद क्यों नहीं करने देता है ? क्यों, आज के
टीवी चैनल अपने मनमाने ढंग से ब्राह्मण विजय दीवान जैसों को वंचित जगत का नुमाइंदा
बना लेता है, क्यों ?
ब्राह्मण-बनिया मीडिया और स्वघोषित एन्टीनाधारी विद्वान कहते है कि भेदभाव
खत्म हो चुका है, समानता आ चुकी है लेकिन समानता है कहाँ? किसी ब्राह्मण-बनिए को
छींक भी आती है तो वह राष्ट्रीय न्यूज़ बन जाता है लेकिन ऊना, सहारनपुर, रोहित
वेमुला, डेल्टा मेघवाल के साथ बलात्कार होता है, उनकी सांस्थानिक बलात्कार व हत्या
होती है लेकिन पूरा का पूरा तथाकथि मुख्यधारा का मीडिया साइनिंग इन्डिया और
श्रेष्ठ भारत का मधुर गीत गा रहा होता है, क्यों ? क्या ये वंचित जगत के साथ
भेदभाव नहीं है ? जंगलों में देश के आदिवासियों के लिए लड़ने वाली सोनी सोरी
की आवाज़ को दबा दिया जाता है, क्यों? आज के भारत में भी पिछला वाला छुआछूत
अभी खत्म भी नहीं हुआ कि नया छुआछूत शुरू हो गया है। वैसे यदि ऐतिहासिक तौर पर
देखा जाय ये कोई आज की बात नहीं। बाबा साहेब को भी ब्राह्मणो ने दबाने का भरसक
प्रयास किया था। नतीजन, बाबा साहेब को मूलनायक, बहिस्कृत भारत, जनता,
समता और प्रबुद्ध भारत नाम के अखबार निकलने पड़े। यही
घटना मान्यवर काशीराम साहब के साथ भी घटी जिसकी वजह से मान्यवर साहब को अनटचेबल
इंडियन, डिप्रेस्सेड इंडियन और बहुजन टाइम्स नाम
की पत्र-पत्रिकाएं निकालनी पड़ी। आर्थिक तंगी ने भी अपना रूप दिखया और समय के
साथ-साथ जब आर्थिक तंगी बढ़ती गयी तो धीरे-धीरे अख़बार भी बंद होते गए।
फ़िलहाल समय के साथ-साथ नए दौर में नए पत्र-पत्रिकाएं शुरू होती गयी। ये
सिलसिला तब से शुरू आज तक चलता आ रहा है। लेकिन, यहाँ पर हम पश्चिम के उन देशों को
धन्यवाद देना चाहते है जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के दुनिया को इंटरनेट दिया
जिसकी बदौलत ब्राह्मणों की चाल सफल नहीं हो पायी, नहीं तो वंचित समाज के लोग ना तो
अपनी बात किसी को कह पाते, और ना ही कोई उनकी बात सुन पाता। ये सोशल मीडिया ही है
जोकि आज वंचित जगत की आवाज़ बना हुआ। जिसकी वजह से ऊना, सहारनपुर, रोहित
वेमुला, डेल्टा मेघवाल जैसे तमाम वंचित समाज के उत्पीड़न की घटनाये सामने आ रही है,
सम्पूर्ण भारत तो नहीं, क्योकि ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग जान-बूझकर बहरा बना कुआ है,
लेकिन दुनिया के अन्य मानवीय देश वंचित जगत की चीत्कार को जरूर सुन रहे है,
ब्राह्मणों की निंदा कर रहे है, निकृष्ट आतंकी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी
हिन्दू धर्म व संस्कृति से साक्षत्कार कर रहे है, और मानवाधिकारों के लिए अलग-अलग
प्लेटफॉर्म पर आवाज़ उठा रहे है।
यदि हम भारत लोकतंत्र के मुख्यधारा मीडिया की बात करे तो ये आज
भी वंचित जगत की आवाज़ दबाने पर ही तुला हुआ है। कुछ एन्टीनाधारी विद्वान ये दम्भ
भर सकते है कि कुछ चैनल वंचितों की आवाज़ उठा रहे है जैसे कि उदहारण स्वरुप
एनडीटीवी। हमें अच्छे से याद है जब ऊना की घटना घटी थी तो रबीश कुमार पाण्डेय ने
एक ब्राह्मण को पकड़ कर स्टूडियों में बिठा लिया था, और वह ब्राह्मण दलितों की
नुमाइंदगी कर रहा था, और सामाजिक समस्याओं पर अपना ब्रह्मणवादी विचार सुना
रहा था। हम ये नहीं कहते है कि वंचित जगत के मुद्दों पर सिर्फ और सिर्फ वंचित जगत
का कॉपी राइट है लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि वंचित जगत की पीड़ा को वंचित
समाज ही बयान कर सकता है। शोषक ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग, वंचित जगत के सन्दर्भ में
सिर्फ उतना ही पीड़ा बयान कर सकता है जितना कि उसको हंटर उठाने और वंचित जगत की पीठ
पर मारने में होती है। यही आज हो रहा, भारत के लोग समझते है कि कुछ उदारवादी
ब्राह्मण-सवर्ण लोग वंचित जगत की मांगों के लिए आवाज़ उठा रहे है, वंचित जगत के
दुखों के लिए लड़ रहे है लेकिन ऐसे लोगों के बारे हम सिर्फ इतना ही कहना चाहते है
कि ये लोग उदारवादी नहीं, बल्कि उधारवादी लोग है जो हमारे जख्मों पर मरहम लगाने का
ढोंग कर हमारे जख्मों पर पहले से लगे मरहम को चुराकर हमारे जख्म को कुरेद रहे है,
ये लोग हमारे जख्म को भरने के बजाय सड़ने के प्रेरित कर रहे है।
ऊना की घटना के दरमियान एनडीटीवी के स्टूडियों में वंचित समाज की
सबसे प्रखर नुमाइंदगी करने वाला विशेषज्ञ विजय दीवान कोई और नहीं, एक ब्राह्मण ही
था। डिबेट का सञ्चालक रबीश कुमार कोई और नहीं, यह ब्राह्मण ही था। मुद्दा है वंचित
जगत का लेकिन पूरे डिबेट में वंचित जगत के लोग कहाँ है ?
कहने का मतलब ये है कि टेलीविज़न चैनलों की डिबेट में ऊना आन्दोलन के
सन्दर्भ में वंचितों की नुमाइंदगी पूना के ब्राह्मण विजय दीवान करते है, मंदसौर
किसानसंहार के खिलाफ किसानों की नुमाइंदगी ब्राह्मण शिवकुमार शर्मा करते है, डिबेट
का सञ्चालन भी ब्राह्मण रविश कुमार पाण्डे करते है, क्यों ? इस पूरे माज़रे में वो
कहाँ है जो आन्दोलन कर रहे है ? ना तो डिबेट में भाग लेने वाले विशेषज्ञ वंचित
समाज से है, और ना ही सञ्चालक। सब के सब ब्राह्मण-सवर्ण ही क्यों है ? रबीश कुमार
पाण्डे जी अच्छा बोलते है, वंचितों के मुद्दे उठाते है, लेकिन गौर करने वाली बात
ये है कि रबीश कुमार कब बोलते है, क्यों बोलते है और किसके लिए बोलते है ? सबसे
बड़ा प्रश्न ये है कि जब भारत में लोकतंत्र है तो वंचित जगत के लोग अपनी आवाज़ खुद
बुलंद क्यों नहीं कर सकते है ? क्यों वंचित जगत के मुद्दों को उठाने वाले पत्रकार
और विशेषज्ञ दोनों एक ही ब्राह्मण जमात से आते है ? हम भी रबीश कुमार जी
की पत्रकारिता की तारीफ करते है लेकिन क्यों साल भर ब्राह्मणी बीजेपी के
खिलाफ आग उगलने वाले रबीश कुमार और इनका एनडीटीवी चुनाव के दौर में ब्राह्मणी
बीजेपी के पक्ष में हवा बनाते है, और इनका एक्जिट पोल गलत तो होता ही
है लेकिन फिर भी अपने गलत एक्जिट पोल से ब्राह्मणी बीजेपी को ही जिताते
है, क्यों? ये ब्राह्मणी-सवर्ण लोग जानते है कि देश का बहुजन आज टीवी देखकर
देश का विकास कर रहा है। इसीलिए ये ब्राह्मणी-सवर्ण लोग साल भर ब्राह्मणी बीजेपी
का विरोध कर वंचित बहुजन जगत का भरोसा जीतते है, और इसी भरोसे को चुनाव के दौर में
ब्राह्मणी बीजेपी के पक्ष में और वंचित बहुजन के खिलाफ इस्तेमाल करते है, क्यों ?
आज के टेलीविजन चैनलों पर होने वाले डिबेट पर गौर करे हम पाते है कि
ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग का कोई भी आ जाये तो वो डिबेट सम्बन्धी विषय का विशेषज्ञ बन
जाता है, फिर चाहे वो मुद्दा समाज का हो, राजनीति का हो, अर्थशास्त्र का हो या फिर
अन्य किसी मुद्दे का। ये ब्राह्मण-सवर्ण विशेषज्ञ होते है, विद्वान होते है लेकिन
जब वंचित जगत के मुद्दों की बात आती तो बिना किसी अनुभव के ये सारे के सारे
ब्राह्मण-सवर्ण लोग वंचित जगत के मुद्दों के भी विशेषज्ञ बन जाते है, और अपनी
बात ब्राह्मणी ढंग से रखनी शुरू कर देते है। इसी कड़ी में अब कुछ चैनल
अपने आप को लोकतान्त्रिक दिखाने और डिबेट को लोकतान्त्रिक रूप देने के १५%
ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग में से ८०% लोगों को बुलाते है और ८५% बहुजन जगत से सिर्फ २०%
लोगों को बुलाते है। कहने का तात्पर्य ये है कि यदि वंचित जगत पर कोई भी डिबेट चल
रहा है तो पांच विशेषज्ञों में से चार विशेषज्ञ १५% आबादी वाले ब्राह्मण-सवर्ण
वर्ग के शामिल किये जाते है, और नाम मात्र के लिए एक विशेषज्ञ ८५% आबादी वाले
बहुजन समाज से शामिल किये जाते है, क्यों ? ब्राह्मण-सवर्ण लोग हर मुद्दे के
विशेषज्ञ होते है लेकिन टीवी डिबेट में यदि कोई वंचित जगत का सदस्य शामिल भी कर
लिया जाता है तो उसे विशेष तौर से दलित-चिंतक कहा जाता है, क्यों
? जब एक ब्राह्मण-सवर्ण समाजशास्त्री कहा जाता है तो वंचित जगत के सदस्य को एक
समाजशास्त्री कहने के बजाय दलित-चिंतक ही क्यों कहा जाता है ? क्या ये भेदभाव नहीं
है ? यदि आगे बढ़ें तो हम पाते है कि और तो और, एंकर भी ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग का ही
होता है, आखिर क्यों ? आखिर ऐसी क्या वजह है कि देश का ठेका लिए घूम रहा
प्रेस्टिट्यूट्स वर्ग, और खुद भारतीय मीडियालय, एक भी वंचित जगत का
प्रखर एंकर पेश नहीं कर पाया, क्यों ? आरक्षण की बदौलत ही सही, लेकिन वंचित जगत के
पत्रकार कहाँ चले जाते है या फिर भेज दिए जाते है ,जो आरक्षण की वजह से पत्रकारिता
के स्कूलों में पढ़ते है ? आखिर वंचित जगत के पत्रकार कहाँ भेज दिए जाते है और
क्यों ? डिबेट के दौरान, एंकर सवाल भी ब्राह्मणी षड्यंत्रकारी ढंग से ही पूछता है
जिसे देखकर, सुनकर ऐसा लगता है कि वंचित बहुजन ही देश की हर समस्या का कारण है।
ब्राह्मण व ब्राह्मणी रोग से पीड़ित प्रेस्टीट्यूट एंकर कुछ ऐसे सवाल पूछता है जैसे
कि - क्या आपको नहीं लगता है कि आरक्षण से देश बर्बाद हो रहा है, क्या
आरक्षण से देश का विकास संभव है, क्या आपको नहीं लगता है कि आरक्षण से
देश की प्रतिभा बेकार हो रही है, आपको आरक्षण चाहिए लेकिन कब तक, आरक्षण
तो सिर्फ दस साल के लिए ही था इत्यादि। ऐसे सवालों में एंकर और चार
एन्टीनाधारी विशेषज्ञ एक तरफ हो जाते, और संविधान व लोकतान्त्रिक मूल्यों पर
आधारित जबाब देने वाला वंचित जगत का शोषित-पीड़ित विशेषज्ञ अकेला पड़ जाता है। और
अंत में, एंकर बहुमत के पक्ष में अपने डिबेट को कन्क्लूड कर देता है। हमारे कहने
का मतलब ये है कि जब डिबेट पैनल ही भेदभाव पूर्वक चुना गया है तो असल मुद्दे की
बात कैसे हो सकती है? प्रेस्टीट्यूट एंकर डिबेट को कन्क्लूड करे इससे पहले
ही कन्क्लूज़न तय हो चुका होता है। डिबेट में वंचित जगत के विशेषज्ञ को
शामिल तो कर लिया जाता है, लेकिन डिबेट में बोलने ही नहीं दिया जाता है। क्या
यही लोकतंत्र है?
आज जंग का सबसे बड़ा मैदान टीवी चैनलों के स्टूडियो है जहां पर
बहुजन की लड़ाई बहुजन के ही दुश्मन के नेतृत्व में लड़ी जा रही है। ऐसी लड़ाइयों के
परिणाम हमेशा निश्चित होते है - "बहुजन की सौ फीसदी हार"।
जब बहुजन सड़क पर उतरता है तो उसकी आवाज़ को दबाने के लिए ही ब्राह्मण-बनिया
मीडिया उसकी आवाज़ उठाने लगते है। टेलीविजन पर हॉट डिबेट देखकर ऐसा लगता है कि
वे विशेषज्ञ और सञ्चालक, जो कि ब्राह्मण-बनिया है, हमारे लिए लड़ रहा है, यही सोचकर
बहुजन सड़क पर उतरते-उतरते वापस फिर लौटकर घर में ये सोचकर आ जाते है कि उनकी लड़ाई
लड़ने वाले लोग है। बस यही पर उनके आन्दोलन की हत्या उनके ही हाथों से हो जाती
है। ब्राह्मण के खिलाफ ब्राह्मण की ही अगुवाई में बहुजनों का आन्दोलन, क्या वाकई
बहुजनों का आन्दोलन हो सकता है? आखिर कब तक अपने ही आन्दोलन की हत्या आप खुद
करते रहोगे? बहुजन समाज के आन्दोलन की नुमाइंदगी ब्राह्मण क्यों करता है? बहुजनों
के मुद्दों पर विशेषज्ञ भी ब्राह्मण-बनिया और सञ्चालक भी ब्राह्मण-बनिया और बहुजन
सिर्फ दर्शक बनकर ही रह जाता है, क्यों? यदि आपका शोषक आपके मुद्दों को बुलन्द करे
तो समझ जाओं कि आपके आन्दोलन की हत्या हो रही है। अपने आन्दोलन की नुमाइन्दगी किसी
और के हाथ (जिसके खिलाफ आन्दोलन कर रहें है उसके ही खेमे वाले के हाथ) में सौप कर
आप खुद अपने आन्दोलन की राह को रोक रहे हो। जब आपके आन्दोलन की नुमाइन्दगी
कोई और (आपका कट्टर शत्रु ब्राह्मण-सवर्ण) कर रहा हो तो उसका एक ही मतलब होता है
आन्दोलन की धार को कुन्द करना, आन्दोलन को रोकना। जब तक शासन-प्रशासन और उत्पादन
के हर क्षेत्र के हर स्तर पर अपने खुद का प्रतिनिधित्व नहीं होगा तब तक लोकतंत्र
सिर्फ एक दिखावा मात्र है। ये लेख हकीकत तो मीडियालय की बयान कर रहा है लेकिन इसी
तरह से ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग हर क्षेत्र में बहुजन की नुमाइंदगी करने की कोशिस करता
है और बहुजन आन्दोलन को कुन्द करने का प्रयास करता है। ये लेख बहुजन समाज के
हर आन्दोलन के लिए उतना ही सटीक और सत्य है जितना कि मीडियालय के लिए। ये
हमेशा याद रखना चाहिए कि आन्दोलन हमारा है तो नुमाइन्दगी भी हमारी होनी
चाहिए। दुश्मन के हाथ में नेतृत्व सौपकर सिर्फ और सिर्फ गुलामी की जाती है, युद्ध
नहीं जीता जाता है। इसलिए यदि युद्ध हमारा है तो उसका महासेनापति हमें ही बनना
पड़ेगा।
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास
छात्र, इग्नू
जून १२,
२०१७
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