हमारे
ख्याल से, जय भीम बहुजन आंदोलन की वैचारिकी, संदेश, सिद्धांत, संघर्ष, गौरवशाली इतिहास,
संस्कृति, बुद्धिज्म आदि को अपने रोजमर्रा की जिन्दगी व जीवन-शैली के साथ अभिवादन,
सम्मान, स्वागत, सहमति, समर्थन, स्वीकृति, हौसला-अफजाई, जोश-जनून, वैज्ञानिकता, मानवीय
मूल्यों, संवैधानिकता, लोकतांत्रिक व मानवीय वैचारिकी आदि के लिए इस्तेमाल किया जाता
है। जय भीम इन सब मूल्यों, सिद्धांतों
व वैचारिकी को बयां करने के लिए काफी है।
मूलनिवासी बनाम विदेशी की
थ्योरी इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं, मानव समाज की जानकारी और स्कूलों के पाठ्यक्रम
के लिए जरूरी हैं क्योकि तथ्यों और इतिहास के साथ पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता
होनी चाहिए।
आज यह
पुरातत्व विभाग द्वारा प्राप्त सबूतों, वैज्ञानिक शोध द्वारा प्रमाणित हो चुका हैं
कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य विदेशी हैं। इन्होने भारत की मानवता, बंधुता व
समतावादी भारतीय संस्कृति को नष्ट किया। इन ब्राह्मणो-सवर्णों ने बुद्धिज़्म की विरासत
को मिटाने का पूरा प्रयास किया हैं। ब्राह्मणों-सवर्णों को बुद्धिज़्म, बुद्धिस्ट से
इतनी नफ़रत हैं कि इन्होने बुद्धिस्टों को बहिष्कृत और अछूत बना दिया।
बुद्धिज़्म
की विरासत इतने लम्बे समय तक धरती की कोख में दफ़न होने बावजूद अपने वज़ूद, साहित्य,
मानवीय संस्कृति, कला आदि को ना सिर्फ बयां कर रही हैं बल्कि पुनर्स्थापना की तरह अग्रसर
भी हैं।
बुद्धिष्ट
पर मिथ्यारोप लगाने वाले ब्राह्मणों को जवाब देते हुए दिल्ली विश्वविद्यलय के
में प्रोफ़ेसर रहे प्रो. ईश मिश्रा कहते
हैं कि "कुछ लोग विदेशी आक्रमणों के लिए बुद्ध के अहिंसा की शिक्षा को जिम्मेदार
मानते हैं। इसी तरह के एक सज्जन ने एक पोस्ट में बुद्ध की शिक्षा को विदेशी आक्रमणों
और 'हजार साल की गुलामी' का जिम्मेदार बताया।“
प्रोफ़ेसर
रहे प्रो. ईश मिश्रा कहते हैं कि “यहाँ
महत्वपूर्ण सवाल यह हैं कि हजार साल की गुलामी कब से मानते हैं? 2000 साल
से भी पहले से? बौद्ध क्रांति के विरुद्ध पुश्यमित्र से शुरू ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति
से? बुद्ध अहिंसक जीवन शैली के प्रवर्तक थे, देश और समाज के सुरक्षातंत्र के भी समर्थक
थे। अपराधियों को कड़ी-से-कड़ी सजा के सिद्धांत के प्रवर्तक थे, जो लोगों को अपराध
करने से हतोत्साहित करने की मिशाल बने। राज्य के बौद्ध सिद्धांत के लिए कृपया दीघ निकाय
और अनुगत्तरा निकाय पढ़ें। राज्य की उत्पत्ति
का बौद्ध सिद्धांत, दैविक नहीं, सामाजिक संविदा का सिद्धांत है तथा राज्य के प्रचीनतम
सिद्धांतों मे एक है। अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन जैसे बौद्ध शासकों की गणना
प्रचीन भारत के पराक्रमी सम्राटों में होती है। राज्यों की पराजय और समाज के पतन का कारण बौद्ध नहीं, वर्णाश्रमी संस्कृति
रही है। जिस समाज में शस्त्र और शास्त्र का अधिकार मुट्ठीभर लोगों को ही हो तथा
कारीगर और श्रमजीवी बहुजन (शूद्र) को अधिकार से वंचित रखा जाता हो, उस समाज को
नादिरशाह जैसा चरवाहा भी 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंद-लूट कर वापस
जा सकता है और हमारे शूरवीर भजन गाते रह जाते हैं।
स्वतंत्रता
आंदोलन के दौरान औपनिवेशिक दलाल आंदोलन के गुरुत्व को कम करने के लिए हजार साल की गुलामी
का भजन गाने लगे। पहले राज्य तलवार के बल पर स्थापित होते थे, और तलवार के धनी महान
शासक माने जाते थे, चाहे वह सिकंदर हो या अशोक, समद्रगुप्त हो या अकबर। अंग्रेज विजेता
अलग थे, वे तलवार से राज्य स्थापित करने नहीं बल्कि गुलाम मानसिकता के हमारे ही पूर्वजों
को वर्दी पहनाकर, जमींदार या बाबू बनाकर उन्ही के बल पर हमें गुलाम बनाकर लूटने आए
थे और 200 साल तक लूटते रहे। मध्ययुग में विदेशी आक्रांताओं के समक्ष देशी राजाओं की
पराजय का कारण बुद्ध की शिक्षा नहीं वर्णाश्रमी व्यवस्था थी।" प्रो ईश मिश्रा
ने स्पष्ट कर दिया हैं ब्राह्मण-सवर्ण विदेशी हैं। यहीं भारत की गुलामी व दुर्दशा
के कारण हैं।
अतः
पाठ्यक्रम और इतिहास आदि के मूलनिवासी बनाम विदेशी थ्योरी सराहनीय हैं। ऐतिहासिक तथ्यों
से किसी भी प्रकार की छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। जो कुछ भारत के इतिहास के साथ अब तक
ब्राह्मणवादी इतिहासकारों, ब्राह्मणवादी साहित्यकारों, ब्राह्मणवादी कवियों, ब्राह्मणवादी
विचारकों आदि ने किया हैं वो सब इनकी मानसिक बीमारी का परिचायक हैं।
फिलहाल
यदि भारत में समतामूलक समाज के सृजन के लिए संघर्ष कर रहें बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी आन्दोलन और
इसको आगे बढ़ाने वाले मान्यवर काशीराम साहेब और परम आदरणीया बहनजी को देखे तो स्पष्ट
हो जाता हैं कि भारत में समतामूलक समाज के निर्माण के लिए बुद्धिज़्म, मानवता, समता,
स्वतंत्रता, बंधुता, करुणा, शिक्षा, लोकतन्त्र जैसे समस्त मानवीय मूल्यों को समाहित
किया हुआ सम्बोधन, बहुजन आन्दोलन प्रतीक, सहमति, अभिवादन, स्वागत आदि का प्रतीक जय भीम हैं।
बाबासाहेब
ने भी कहा हैं कि यदि हमें भारत को एक राष्ट्र के तौर पर विकसित करना हैं तो
कुछ गिले-सिकवे भूलने होगें। इसलिए भी समतामूलक
समाज के सृजन हेतु मूलनिवासी बनाम विदेशी
थ्योरी के बजाय जय भीम की संस्कृति व सरकार स्थापित करनी होगी।
हमारा
ऐसा विश्वास है कि मानवता के दर्शन में मूलनिवासी व विदेशी के मुद्दे का कोई खास महत्व
भी नहीं है। क्योंकि यदि इसका इतना ही महत्व होता तो परमपूज्य बाबासाहेब डॉ अंबेडकर
कभी भी सवर्णों के अपने साथ शामिल ना करते, अपने संगठन आदि में स्थान ना देते।
समतामूलक
समाज के सृजन में यदि मूलनिवासी व विदेशी के मुद्दे इतनी ही अहमियत रखते तो क्रांतिसूर्य
ज्योतिबा फुले भी ब्राह्मणों से कभी मित्रता ना करते ना ही अपने मुहिम में कभी किसी
ब्रह्मण को शामिल करते, ना ही विधवा ब्रहम्णी को प्रसव के लिए अपने घर में जगह देते,
ना ही विधवा ब्रहम्णी के बेटे को गोद लेकर उसका लालन-पालन करते।
बहुजन
समाज की स्वतंत्र राजनैतिक अस्मिता को स्थापित कर बहुजन समाज को चार-चार बार सत्ता
तक पहुंचाने वाले मान्यवर साहब व भारत महानायिका परम आदरणीया बहनजी भी सवर्ण समाज को
बहुजन समाज की राजनैतिक पार्टी व भारत में सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन बहुजन समाज
पार्टी में जगह ना देते। समतामूलक समाज के समर्थन में बने समता समाज संघ के पद पर बाबासाहेब
ने कट्टर ब्रह्मण बालगंगाधर तिलक के बेटे श्रीधर तिलक को नियुक्त किया था, कारण मूलनिवासी
या विदेशी नहीं बल्कि समतामूलक समाज में श्रीधर का विश्वास था।
फूले,
मान्यवर व बहनजी ने सर्व समाज के मानवीय मूल्यों वाले लोगों को अपने साथ कदमताल करने
का मौका दिया तो इसका कारण समतामूलक समाज में लोगों का विश्वास है, ना कि मूलनिवासी
या विदेशी पृष्ठभूमि।
रजनीकान्त
इन्द्रा
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