राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद और बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर का चिंतन
प्रस्तावना -
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद
शब्द १८वीं सदी में जन्मे जरूर हैं लेकिन इनकी मूल भावना हमेशा से ही विद्यमान रही
हैं। १८वीं सदी में पहली बार जर्मन राष्ट्रवाद की आधारशिला रखने वाले राष्ट्रवाद
के प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर
के मुताबिक राष्ट्र केवल समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। ये औऱ
बात है कि जब-जब इस बुनियाद पर समरूपता स्थापित करने का प्रयास किया गया है तब-तब तनाव,
उग्रता और हिंसा को
ही प्रोत्साहन मिला है, फिर चाहें वह इटली हो या जर्मनी हो या फिर भारत। फ़िलहाल,
१८८७ आते-आते ब्रिटिश शासन के अत्याचारों के परिणामस्वरूप जन्मे राजनैतिक उथल-पुथल
और लोगों की एकजुटता के चलते भारत समेत अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में राष्ट्र और
राष्ट्रवाद की अवधारणा ने रूप लेना शुरू कर दिया था।
इस प्रकार, राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद
शब्द, जो कि १८वीं सदी के दौर में गढ़ा गया, पूरी दुनिया में जहाँ एक तरफ विद्रोह
तो दूसरी तरफ तानाशाही का प्रतीक बन गया। सामान्य जनमानस इन शब्दों को आम बोलचाल
में अक्सर इस्तेमाल करता रहता है। भारत में, सन २०१४ में, केंद्र की सत्ता परिवर्तन
के बाद से ही राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद काफी चर्चा में रहा है। इसलिए
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद पर चिंतन एक महत्वपूर्ण विषय है।
राज्य और राष्ट्र -
आम बोलचाल में लोग राज्य और राष्ट्र
को एक-दूसरे के पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल जरूर करते हैं लेकिन इनके बीच बुनियादी
अंतर है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राष्ट्र संघ। वास्तव में, यह संगठन राष्ट्रों का
संघ नहीं है, बल्कि राज्यों का संघ है। राज्य और राष्ट्र वास्तव में एक-दूसरे से जुदा,
दो अलग-अलग विचार है। राजनीति विज्ञान के अनुसार, जनसंख्या, भूमि, सरकार और
संप्रभुता राज्य के चार अहम् तत्व हैं। जबकि राष्ट्र साझा धर्म, समान भाषा, साझा
संस्कार, समान इतिहास और भावनात्मक एकता की बुनियाद पर बना होता है। यदि राज्य
के चार तत्वों में से एक को भी कम कर दिया जाय तो राज्य का निर्माण नहीं
हो सकता है, लेकिन यदि राष्ट्र के मूल तत्वों में से एक या दो तत्व ना भी हो तो
भी एक राष्ट्र बन सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य एक राजनैतिक संकल्पना
हैं जबकि राष्ट्र समाजशास्त्रीय संकल्पना है।
राष्ट्र एक ऐसा जन
समूह होता है जिसकी अपनी एक जुदा पहचान होती है, जो कि उस समुदाय को उस
राष्ट्र से जोङती है। राष्ट्र, लोगों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें एक समान
भाषा, धर्म, इतिहास और एक समान नैतिक-आचार होता है। राष्ट्र, एक भौगोलिक
क्षेत्र में समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधा समान राजनैतिक
महत्त्वाकांक्षाओं के साथ जीने की भावना होती हैं।
राष्ट्रभक्ति
और देशभक्ति -
भारत में
लोग राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति को एक-दूसरे का पर्यायवाची समझते हैं। ऐसे में, राष्ट्रभक्ति और
देशभक्ति के बारीक़ अंतर को भी समझने की जरूरत है। देशभक्ति का मतलब होता हैं - अपनी
मातृभूमि के प्रति निष्ठा, ईमानदारी और वफादारी। जबकि राष्ट्रभक्ति का मतलब होता
है - किसी एक वैचारिकी (संस्कृति) विशेष के लोगों के प्रति निष्ठा, ईमानदारी और वफादारी।
उदहारण के तौर पर, भारत देश के प्रति निष्ठा, ईमानदारी और वफ़ादारी देशभक्ति है, जबकि
हिन्दुओं के प्रति उसके लोगों की निष्ठा, ईमानदारी और वफादारी हिन्दुओं की हिन्दुओं
के प्रति राष्ट्रभक्ति है। हिन्दु राष्ट्रभक्ति में हिन्दुओं की मुस्लिमों, ईसाईयों,
बौद्धों, जैनियों, पारसियों, दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के प्रति ना तो कोई निष्ठां
होती हैं, ना ईमानदारी, और ना ही वफादारी। स्पष्ट हैं कि देशभक्ति एक राजनीति
विज्ञान की संकल्पना है, तो राष्ट्रभक्ति एक समाजशास्त्रीय संकल्पना है।
राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद -
राष्ट्रवाद, तारीख विशेष
में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व बौद्धिक कारणों के परिणामस्वरुप
जन्मी एक ऐसी वैचारिकी है जिसमे एक भौगोलिक क्षेत्र विशेष में रहने वाले
जन समूह की एक मनःस्थिति, अनुभव या भावना है, जो समान भाषा बोलते हैं, जिनके पास
एक ऐसा साहित्य है जिसमें राष्ट्र की संकल्पना गढ़ी जा चुकी हो, जो समान परम्पराओं व
समान रीति-रिवाजों से सम्बद्ध हो, जो समान धर्म को मानने वाले हो, जिनके इष्ट समान हो,
जिनके नायक समान हो और जिनकी अभिलाषाएं समान हो।
राष्ट्रीयता और
राष्ट्रवाद के फर्क को स्पष्ट करते हुए बाबा साहेब कहते है कि “राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद में फर्क है। ये मानव मस्तिष्क की दो अलग-अलग
मनोवैज्ञानिक अवस्थाएं है। राष्ट्रीयता से तात्पर्य एक तरह की संचेतना
से है, जातीय बंधन के अस्तित्व के प्रति सजगता से है। जबकि राष्ट्रवाद से तात्पर्य
उन लोगों के लिए एक पृथक राष्ट्रिय अस्तित्व की आकंक्षा से है, जो इस जातीय
बंधन से बधें है।“[1] किसी राष्ट्र
के सदस्यों के ज़हन में बसने वाली अपनत्व की सामुदायिक भावना, जो उनके
संगठन को सुदृढ़ करती है, राष्ट्रीयता कहलाती है, जो कि राष्ट्रवाद के लिए सबसे
अहम् है।
राष्ट्रीयता, जो
कि राष्ट्रवाद के लिए इतना खास है कि इसके बिना राष्ट्रवाद हो ही नहीं सकता है,
के संदर्भ में बाबा साहेब कहते है कि "राष्ट्रीयता एक सामाजिक सोच है।
यह एकत्व की एक समन्वित भावना की अनुभूति है, जो उन लोगों में जो इससे अभिभूत है, परस्परता
की भावना और उनमे यह अनुभूति जगाती है कि वे एक ही तरुवर के फूल हैं। यह राष्ट्रीयता
एक दुधारी अनुभूति है। यह जहाँ अपने प्रियजनों के प्रति अपनत्व की अनुभूति है, वहीँ
जो एक व्यक्ति के अपने प्रियजन नहीं है, उनके प्रति अपनत्व-विरोधी अनुभूति भी है।"[2]
यहाँ अपनत्व का आधार कुछ भी हो सकता है। अपनत्व के आधार पर जब अलग देश (स्वतंत्र
संप्रभु पृथक राजनैतिक राज्य) की संकल्पना पल्वित हो उठती है तो यहीं अपनत्व का
आधार उस राष्ट्र के राष्ट्रवाद में तब्दील हो जाता है।
बाबा साहेब कहते
है कि राष्ट्रीयता की भावना
के बिना राष्ट्रवाद हो ही नहीं सकता है। परंतु इस बात को भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण
है कि “राष्ट्रीयता की भावना की मौजूदगी के बावजूद राष्ट्रवाद की सोच सर्वदा अनुपस्थित
हो सकती है। कहने का तात्पर्य है कि राष्ट्रीयता से राष्ट्रवाद उजागर
होने के लिए दो शर्तें आवश्यक है। प्रथम, एक राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा का जागृत
होना। दूसरे, एक क्षेत्र का होना जिसे राष्ट्रवाद अधिग्रहित कर एक राज्य तथा राष्ट्र
का सांस्कृतिक घर बना सकें।“[3]
राष्ट्रवाद पर
मार्क्सवादी चिंतकों एवं अन्य विद्वानों की राय -
राष्ट्रवाद के
राजनैतिक और सामाजिक पहलुओं को नजरअंदाज कर आर्थिक विषमता पर आधारित शोषण के मद्देनज़र मार्क्सवादी
चिंतक "राष्ट्रवाद और पूँजीवाद" को एक-दूसरे का सहयोगी या पर्याय ही
मानते है। सत्तर के दशक में होरेस बी. डेविस ने मार्क्सवादी तर्कों का
विश्लेषण करते हुए जहाँ राष्ट्रवाद को बौद्धिकता से जोड़कर बुद्धिसंगत करार दिया तो
वही दूसरी तरफ उन्होंने राष्ट्रवाद को संस्कृति, रीति-रिवाजों और परम्पराओं से जोड़कर
भावनात्मक भी बताया है। राष्ट्रवाद के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को ध्यान
में रखकर राष्ट्रवाद को एक हथियार कहा जा सकता है। होरेस बी. डेविस कहते है कि हथौड़े
से हत्या भी की जा सकती है, और निर्माण भी। कहने का तात्पर्य है कि राष्ट्रवाद
को हथियार बनाकर जब किसी समूह द्वारा अपने मानवीय हकों के लिए संघर्ष किया
जाता है तो यह निर्माण के लिए कार्य करता है, लेकिन जब राष्ट्रवाद को हथियार बनाकर
किसी समूह के मानवीय हकों को छीना जाता है तो वह विध्वंसकारी हो जाता है।
भूमण्डलीकरण के
मौजूदा दौर में क्रोनी कैपिटलिज़्म भी एक राष्ट्रवाद ही है, जहाँ पर उद्योग
घरानों ने देश की सारी सम्पदा पर कब्ज़ा कर देश की पूरी आबादी को चंद पूंजीपतियों के
रहम-ओ-करम पर छोड़ दिया है। मार्क्सवादी मानते रहे है कि राष्ट्रवाद पूँजीवाद के विकास
में उसका सहयोगी बन कर उभरा है। फ़िलहाल, मार्क्सवादी विमर्श का एक विरोधाभास
यह भी है कि राष्ट्रवाद को पूँजीवादी वर्ग की विचारधारा मानने के बाद भी क्रांतिकारी
राजनीति के धरातल पर कई कम्युनिस्ट पार्टियों ने राष्ट्रवाद को अपनी गोलबंदी का आधार
बनाया है। क्रांति के पश्चात् समाजवादी समाज की रचना के लिए भी राष्ट्रवादी भावनाओं
का इस्तेमाल किया गया है।
बेनेडिक्ट एंडर्सन
ने राष्ट्रवाद के भावनात्मक पहलू को उजागर करते हुए राष्ट्र को एक काल्पनिक समुदाय
बताया है। एंडर्सन इसे काल्पनिक समुदाय इसलिए कहते है क्योकि छोटे से छोटे वर्ग या
जाति के लोग यह जानते हुए की वे सभी लोग आपस में एक-दूसरे से कभी मिल नहीं पायेगें,
पर फिर भी एक-दूसरे से एक भावनात्मक लगाव का एहसास करते है।
फ़िलहाल,
यदि पश्चिमी राष्ट्रवाद और पूर्वी राष्ट्रवाद के चरित्र पर गौर करे तो हम पाते हैं
कि युरोपियन राष्ट्रवाद का जन्म एक देशज ऐतिहासिक जद्दोजहद की वजह से सांस्कृतिक
दिखाई पड़ती है, तो पूर्वी राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद के खिलाफ राजनैतिक आन्दोलनों
से सृजित प्रतीत है।
कुल मिलाकर, राष्ट्रवाद
का कोई एक तय पैमाना नहीं है। इसकी परिभाषा देश-काल और जरूरत के हिसाब से बदलती
रहीं है। जहाँ रंगभेद (काला-गोरा) अमेरिका
में, नाजीवाद जर्मनी में, फासीवाद इटली में राष्ट्र व राष्ट्रवाद का
आधार बना तो वहीं ब्रिटेन में उसके उद्योगों के लिए कच्चे माल और बड़े
बाजार को प्रोत्साहन देती राजशाही राष्ट्र व राष्ट्रवाद की बुनियाद बनी।
और, मौजूदा दौर में पाकिस्तान-अफगानिस्तान में इस्लाम तो भारत में ब्राह्मणवाद,
राष्ट्रवाद की नींव बनकर दहशत बन चुकी है।
भारत के संदर्भ
में
क्या भारत एक
राष्ट्र है ?
जब हम भारत की तरफ रुख करते हैं तो
हम पाते हैं कि भारत एक ऐसा देश है, जहाँ विविधिता में एकता दिखाई पड़ती है। ऐसा देश
जिसने कई संस्कृतियों को अपने आँचल में स्थान दिया, कई भाषाओ, धर्मों के मिलन
और कई संस्कृतियों के सह-अस्तित्व का साक्षी है। ऐसा देश जिसको आकाश में उड़ती
चिड़िया की नजरो से देखने पर "अनेकता में एकता" दिखाई पड़ती है। ऐसा
दिलकश बहुआयामी नजारा शायद ही किसी अन्य देश की मिटटी को नसीब हुआ हो। इसके बावजूद
भारत के सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न ये बनता हैं कि क्या भारत एक राष्ट्र
है।
भारत भाषायी, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं अन्य विविधताओं से भरा एक स्वतंत्र
और सम्प्रभु राजनैतिक भू-खंड है, जो आज भी अपने राष्ट्र रुपी वजूद को बनाने के
लिए संघर्ष कर रहा है। क्योकि, आज भी कहीं भाषा के नाम पर तो कहीं संस्कृति
और संस्कार के नाम पर रोज विवाद हो रहा है। इस स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनैतिक भू-खंड
पर, आज भी लोगों को अपने पूरे अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत की इस धरती पर भेद-भाव
और जाति-पाति (सामाजिक असमानता) जैसा कैंसर आज भी सुदृढ़तापूर्वक कायम है।
यहाँ पर आज भी केवल कुछ चंद मुट्ठीभर सवर्ण, खासकर ब्राह्मणों, का ही वर्चस्व
है। भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पर बोली अलग, पहनावा अलग, संस्कृति अलग, लोक
जीवन को प्रभावित करती भौगोलिक दशाएं अलग, रहन-सहन अलग, खेती-बाड़ी के तरीके अलग,
लोगों का आपस में एक-दूसरे पर विश्वास की भारी कमी है, धर्म, वर्ग, जाति,
बोली, पानी आदि के लिए परस्पर और निरंतर द्वन्द (बंधुत्व की कमी)
है। क्या ऐसा देश एक राष्ट्र हो सकता है?
हम विविधता की
खूबसूरती को इंकार नहीं कर रहें है। विविधताओं का होना अच्छी बात है। परन्तु, इन्ही
विविधताओं का आपस में संघर्ष होना उससे भी ज्यादा हानिकारक बात है। सबसे बड़ी बात यह
है कि - नारीविरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था
और इससे प्रभावित अन्य व्यवस्थाओं में गैर-बराबरी की सोच और छुआछूत की भावना
का दृढ़तापूवर्क कायम होना। जाति-पाति का यह जहर आज भी लोगो की रगों में दौड़
रहा है। क्या, एक ऐसा देश, जिसमे लोगों को आपस
में जोड़ने वाली कोई सामाजिक समानता की कड़ी ही ना हो, राष्ट्र कहलाने के योग्य
है?
बाबा साहेब कहते
है कि भारत में हिंदू राष्ट्र की पैरवी
करने वाले श्री सावरकर बहुत जोर देकर कहते है कि “हिंदू स्वयं में ही एक राष्ट्र
है। तथापि इसका यह भी अर्थ निकलता है कि मुस्लिम अपने आप में एक अलग राष्ट्र है।“[4]
यदि भारत में मुसलमान एक अलग राष्ट्र है तो भारत निश्चय ही एक
राष्ट्र नहीं है।
आगे बाबा साहेब
जिन्ना और सावरकर के मांग का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए कहते है कि “यह बात
सुनने में भले ही विचित्र लगे पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर श्री सावरकर
और श्री जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते
हैं। दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं, और, ना केवल स्वीकार करते
हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं - एक मुस्लिम राष्ट्र
और एक हिंदू राष्ट्र।“[5]
इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि
भारत एक राष्ट्र नहीं है।
जैसा विदित हैं
कि इतिहास में हिन्दू संगठन कांग्रेस और मुस्लिम लीग में कई बार समझौते हुए है।
और, समझौते के सन्दर्भ में बाबा साहेब कहते है कि “जब कोई राष्ट्र दूसरे राष्ट्र
के साथ संधि करने के लिए आगे बढ़ता है तो वह दूसरे राष्ट्र की सरकार (प्रतिनिधि संगठन)
को पूर्ण प्रतिनिधित्व करने वाली स्वीकार करता है।“[6] मतलब
कि यदि हिन्दू संगठन, जो कि खुद एक राष्ट्र होने का दावा करते है, मुस्लिमों के
स्वतन्त्र प्रतिनिधित्व, मुस्लिम राष्ट्र, को स्वीकार करते है। इससे भी प्रमाणित
होता हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं हैं।
बाबा साहेब
कहते है कि “हिंदुओं का आक्रोश स्वाभाविक ही है। भारत एक राष्ट्र है या नहीं,
यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होने के साथ ही एंग्लो-इंडियन और
हिंदू राजनीतिज्ञों के बीच विवाद का विषय रहा है।“[7]
बाबा साहेब एंग्लों-इंडियन
की असहमति को चिन्हित करते हुए कहते है कि “एंग्लो-इंडियन
यहां जताते हुए कभी नहीं अघाए कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। भारतीय तो भारत के
लोगों के लिए एक अन्य संज्ञा मात्र ही है। एक एंग्लो-इंडियन के शब्दों में भारत को
जानने के लिए यह भूलना होगा कि भारत जैसी कोई चीज है। दूसरी ओर, हिंदू राजनीतिज्ञ
और देशभक्त इस बात पर समान रूप से जोर देते रहे हैं कि भारत एक राष्ट्र है। इस
बात को नकारा नहीं जा सकता है कि एंग्लो-इंडियन के कथन में सार्थकता
है।[8]
बाबा साहेब बंगाल
के कवि रविंद्रनाथ टैगोर और भारत को
जबरन राष्ट्र घोषित करने वाले राजनीतिज्ञों की बीच की असहमति और उनकी लज्जा के संदर्भ
में लिखते है कि “यहां तक कि बंगाल के राष्ट्रीय कवि टैगोर भी उनसे सहमत है।
परंतु इस मुद्दे पर हिंदू कभी टैगोर के समक्ष भी नहीं झुके। इसके दो कारण हैं। प्रथम,
हिंदू यह स्वीकार करने में लज्जा महसूस करते है कि भारत एक राष्ट्र नहीं
है।[9]
दूसरा यह है कि राष्ट्रीयता का स्वराज के दावे से गहन सम्बन्ध है।[10]
१९वीं सदी में स्वशासन के लिए मान्य सिद्धांत का जिक्र करते हुए
बाबा साहेब लिखते है कि “क्योकि १९वीं सदी के अंत तक यह एक मान्य सिद्धांत
हो गया था कि जो लोग एक राष्ट्र के रूप में रहते हैं, वे स्वशासन के अधिकारी हैं।[11]
आगे, स्वशासन के इस सिद्धांत के चलते हिन्दुओं की मजबूरी
को बयां करते हुए बाबा साहेब लिखते है कि “और, यदि कोई भी देशभक्त जो
अपनी जनता के लिए स्वशासन की मांग करता है उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह जनता एक राष्ट्र
है।“[12]
स्वशासन पाने के लिए बिना जांचे-परखे कि भारत एक राष्ट्र है या नहीं, हिन्दू
लगातार इस बात पर जोर देते रहें कि वे एक राष्ट्र हैं। हिन्दू राजनीतिज्ञ स्वशासन की
शर्त को भली-भांति जनता था। हिन्दू राजनीतिज्ञ की इस संज्ञानता के संदर्भ में बाबा
साहेब लिखते हैं कि “वह एक बात जनता है कि इसी उसे भारत के लिए स्वशासन की
अपनी मांग में सफलता पानी है, तो उसे इस बात पर कायम रहना होगा कि भारत एक
राष्ट्र है, भले ही वह इसे सिद्ध ना कर सके।“[13]
हिन्दुओं के इस
भ्रम का इलाज करने के बजाय भारत को
एक राष्ट्र के रूप में प्रचारित-प्रसारित करने वाले लेखकों, इतिहासकारों,
चिंतकों और विचारकों की अपंगता व उनकी मजबूरियों को उजागर करते हुए
बाबा साहेब लिखते है कि “भारतीय इतिहास
के गंभीर अध्येता भी उसके अध्ययन में प्रचारात्मक साहित्य की रचना करते है। निस्संदेह
देशभक्ति की भावना से हिंदू समाज सुधारक जो यह जानते हैं कि यह एक घातक विभ्रम है,
खुलकर इस दावे का खंडन नहीं कर सके, क्योंकि जो कोई इस बात पर सवाल करता है, उसे तात्कालिक
ब्रिटिश नौकरशाह के पिट्ठू और देश के शत्रु की संज्ञा दे दी जाती है।“[14]
ऐसे में राष्ट्रभक्ति
को चलाने वाली वैचारिकी (संस्कृति) को राष्ट्रवाद और उस वैचारिकी (संस्कृति) को
मानने वाले लोगों के समूह को राष्ट्र कह सकते हैं। राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति का
हवाला देकर सत्ता पर कब्ज़ा करने वाली (श्री नरेंद्र दामोदर मोदी के अगुवाई वाली बीजेपी
सरकार) पार्टी के सन्दर्भ में बाबा साहेब का ये कथन, जो २०वीं सदी की राजनैतिक सत्ता
के संदर्भ में कहा गया था, आज २१वीं सदी के दूसरे दशक में भी पूर्णतः प्रासांगिक
हैं कि “यदि हिंदुओं के लिए भारत में स्वशासन की माग से सफलता पानी है तो उसे
इस बात पर कायम रहना होगा कि भारत एक राष्ट्र है, भले ही वह इसे सिद्ध ना कर सके।“[15]
इससे भी प्रमाणित होता हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं हैं।
१९३७ में अहमदाबाद
में आयोजित हिन्दू महासभा के अधिवेशन में बोलते हुए सावरकर कहते है कि "आज हिंदुस्तान को एकात्मक और समजातीय राष्ट्र
नहीं कहा जा सकता है, बल्कि इसके विपरीत यहाँ हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं।"[16] हिन्दू भारत को
एक राष्ट्र कहते हुए नहीं अघाते है जबकि उन्हीं के पूज्यनीय श्री सावरकर
खुद ही भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार करते है। स्पष्ट हैं कि हिन्दू भी जानते
है कि भारत एक राष्ट्र नहीं हैं लेकिन बहुजनों को सत्ता से दूर कर येन-केन-प्रकारेण
भारत की सत्ता पर काबिज़ होने के लिए ही, आज २१वी सदी के दूसरे दशक में भी, हिन्दु
लोग भारत को जबरन एक राष्ट्र ठीक उसी तरह घोषित कर रहें है जैसा कि
हिन्दुओं ने १९४७ के पहले ब्रिटिश हुकूमत से सत्ता हथियाने के
लिए किया था।
जबकि किसी भी राष्ट्र
के लिए यह आवश्यक हैं कि लोग एक-दूसरे का सुख-दुःख महसूस करें। यह तभी संभव हैं जब
राष्ट्र की सत्ता-संसाधन पर सब लोगों, खासकर सदियों से सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, राजनैतिक,
व आर्थिक तौर पर वंचित बहुजन समाज को, जोकि खुद भारत की कुल आबादी का ८५
फीसदी हैं, का समान रूप से समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी (आरक्षण)
हो। लेकिन भारत की स्थिति इसके विपरीत है। यहाँ पर सांस्कृतिक तौर पर अपराधी जातियों
(ब्राह्मण-सवर्ण समाज) ने सत्ता और संसाधन पर पूरी तरह से कब्ज़ा कर रखा है। देश की
८५ फीसदी आबादी को आज भी सभी अधिकार नहीं दिए जा रहे है। लोकतंत्र चुनावों मात्र तक
सिमट गया है। राजनीति में नाम मात्र के लिए लोकतंत्र है लेकिन सामाजिक व आर्थिक
जीवन में ब्राह्मणवादी-सामन्ती व्यवस्था पूरी दृढ़ता के साथ कायम है। यहाँ आज भी
दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों और धार्मिक अल्पसख्यकों पर हिन्दुओं के हमले बादस्तूर जारी
है। यहाँ दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों और धार्मिक अल्पसख्यकों पर हमला करके सांस्कृतिक
तौर पर अपराधी जातियों (Culturally Criminal Castes – CCC) को ख़ुशी
की अनुभूति होती है। यहाँ शोषित वर्गों (बहुजन समाज - वंचित-आदिवासी-अन्य पिछड़े और
धार्मिक अल्पसंख्यकों) तक में आपसी बंधुता नदारद है। ऐसे में, जिस देश में आपसी
बंधुता ही ना हो, क्या वो देश एक राष्ट्र हो सकता है?
बहुजनों के अधिकारों
पर लगातार सरकार, संसद और न्यायपालिका को हथियार बनाकर सत्ता व संवैधानिक संस्थाओं
में बैठे सांस्कृतिक तौर पर अपराधी समाज (Culturally Criminal Society – CCS) के लोगों द्वारा बहुजनों के
समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) और अनुसूचित जाति एवं
अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 को लगातार कमजोर किया जाता है,
तो सांस्कृतिक तौर पर अपराधी जातियों में जश्न होता है। जहाँ देश के दलित-आदिवासी
और पिछड़े वर्ग के लोगों से नफरत किया जाता है, शब्दों का मायाजाल गढ़कर बहुजनों
को भ्रमित किया जाता है। ऐसे में, क्या कोई भी ऐसा बुनियादी मुद्दा है जिस पर हिन्दू
और बहुजन समाज के लोग एक साथ गर्व और दुःख
महसूस कर सकते है? यदि नहीं, तो भारत एक राष्ट्र कैसे हो सकता है।
बाबा साहेब हिंदुओं
और मुस्लिमों के बीच बंधुत्व की भावना की कमी उजागर करते हुए कहते है कि "क्या ऐसे कोई सामूहिक ऐतिहासिक पूर्व दृष्टान्त
है, जिनके बारे में ये कहा जा सके कि हिन्दू और मुस्लिम वर्ग गर्व अथवा दुःख के
विषयों में सहभागी बनते है?"[17]
भारत को जबरन एक राष्ट्र घोषित करने वाले हिन्दुओं को इसका जबाव देना चाहिए। यदि
हिन्दू इसका जबाव नहीं दे सकता है तो स्पष्ट हैं कि भारत एक राष्ट्र कतई नहीं है।
भारत में आपसी
सामाजिक एकता (समता-स्वतंत्रता-बंधुता) की गैर-मौजूदगी से दुखी बाबा साहेब कहते
है कि “सामाजिक एकता के
बिना राजनैतिक एकता प्राप्त करना कठिन है। यदि वह प्राप्त भी कर ली गयी तो वह गर्मी
में बोए गए पौधे की तरह कमजोर होगी, जो तेज आंधी से उखड सकता है। राजनीतिक एकता होने
से हिंदुस्तान एक रियासत तो बन जायेगा, परन्तु एक रियासत एक राष्ट्र नहीं होता,
और एक रियासत, जो एक राष्ट्र नहीं है, अस्तित्व के संघर्ष में उसके बचे रहने की संभावना
नहीं होती है।“[18]
हमारे निर्णय
में, भारत, एक ऐसा भू-खंड है जो राजनीतिक रूप से स्वतंत्र और सम्प्रभु प्रान्त
है। भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रो का एक समूह है। बाबा साहेब कहते है
कि जिस तरह से “मनुष्य अचानक नहीं आता है (ठीक उसी तरह से राष्ट्र भी अचानक
नहीं अस्तित्व प्राप्त कर लेता है)। मनुष्य के समान ही राष्ट्र भी प्रयासों के
एक सुदीर्घ अतीत का प्रतिफल है।“[19]
स्पष्ट हैं कि आज का भारत अभी राष्ट्र नहीं है बल्कि भारत राष्ट्र
बनने की तरफ अग्रसर है।
भारत राष्ट्र
कैसे बन सकता है?
उपरोक्त तर्कों
के आधार पर यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत एक राष्ट्र कतई नहीं है। रेनन
के मुताबिक यदि भारत को भविष्य में एक राष्ट्र के रुप में स्थापित होना है
तो इसके लिए “विस्मरणीयता”[20]
एक महत्वपूर्ण कारक है। स्थापित तथ्यों से प्रमाणित है कि भारत का बहुजन
समाज (दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग और धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यक समुदाय) लगातार अपने
अतीत को भुलाकर संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक व संवैधानिक अधिकारों द्वारा न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व
पर आधारित नए भारत के सृजन के लिए आगे बढ़ने की जद्दोजहद कर रहा है। ऐसे में, आज
भारत के सामने सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सांस्कृतिक तौर पर अपराधी जातियां
अपनी ब्राह्मणी मनुवादी सोच और रवैये को विस्मृत करने के लिए तैयार है?
किसी भी राष्ट्र
के लिए आवश्यक है कि उसके लोगों में आपसी अपनत्व की भावना हो। ऐसे में भारतियों को
एक धाँगे में बांधने वाले सूत्रों की खोज महत्त्वपूर्ण है। पड़ताल करे तो
हम पाते हैं कि भारत के लोगों को एक सूत्र में बांधने वाले दो महत्वपूर्ण कारक दिखाई
पड़ते हैं जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने ले किए अहम्
है। जिसके आधार पर भारत को भविष्य में एक राष्ट्र के रूप में विकसित किया
जा सकता है।
पहला, अंग्रेज प्रदत्त
अंग्रेजी भाषा। जिसके लिए सभी भारतियों को अंग्रेजो का शुक्रगुजार होना चाहिए। जिसने
उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम को एक सूत्र में बांध रखा है। दूसरा,
बाबा साहेब आंबेडकर रचित भारतीय संविधान और इसके तहत निहित मानवीय लोकतान्त्रिक
मूल्य।
जहाँ एक तरफ भारत
की अलग-अलग संस्कृतियों, धर्मों, पंथों आदि को एक सूत्र में बांधने का श्रेय भारतीय
संविधान को जाता है, तो वही दूसरी तरफ अंग्रेजी भाषा भारत के लोगों के बीच संवाद
का अहम् हिस्सा बन पूरे भारत को एक सूत्र में पिरों रहीं है। अंग्रेजी भाषा ने
क्षेत्रीय भाषाओँ के आधार पर पनपने वाले हिंसक राष्ट्रवाद को कुचलकर सभी भाषाओ की अस्मिता
को बरक़रार रखते हुए भारत को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में बांधने अहम् भूमिका निभाता
है।
ब्राह्मणवाद और
पूँजीवाद द्वारा बहुजनों पर थोपा गया संघर्ष भारत को सिर्फ और सिर्फ तोड़ने
का ही कार्य करता है। ऐसे में, समूचे देश को एक सूत्र में बांधने वाला मानवीय सूत्र
चाहिए। यदि हम गौर करें तो हम पाते हैं कि आदिकाल से ही भारत में बौद्ध-श्रमण संस्कृति
रहीं है। हड़प्पा-मोहनजोदड़ों आदि इसके सबूत है। पूरे भारत को एक धाँगें में बांधने
का सूत्र इसी बौद्ध संस्कृति में है, जिसकी पडताल कर बाबा साहेब ने इन तीन मूल्यों
को संविधान का मूल बनाया। समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व रुपी इन तीन मूल्यों को
त्रिरत्न भी कहा जाता है।
हमारे निर्णय में, इन्हीं
दो सूत्रों की बुनियाद पर भारत को एक राष्ट्र बनाया जा सकता है। बाबा साहेब भी जाति,
धर्म और भाषा आदि के आधार पर राष्ट्रवाद की संकल्पना को किनारे कर मानवीयता को
स्थापित करने वाले त्रिरत्नों - समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व, को ही राष्ट्र
की बुनियाद मानते है। यहीं वजह रहीं है कि बाबा साहेब ने इन त्रिरत्नों को संविधान
की प्रस्तावना में ही स्थापित कर दिया ताकि इनसे लगातार भारतियों को मार्गदर्शन
मिलता रहे।
भारतीय संविधान
ही है जो भारत के सैकड़ों राष्ट्रों की राष्ट्रिय अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए उनकों
एक सूत्र में बांधकर उनके सहर्ष एक साथ रहने में मददगार है। बाबा साहेब रचित संविधान
के आधार पर ही हम भारत राष्ट्र निर्माण कर सकते है। इसलिए सविधान को बाबा साहेब की मंशा के अनुरूप
लागू किया जाना अपरिहार्य हैं।
संविधान में बाबा
साहेब ने हर संभव राष्ट्र और उनकी अस्मिताओं को सम्यक मान-सम्मान और हक़ देकर एक
सूत्र में पिरोने का कार्य किया है। बाबा साहेब ने सैकड़ों राष्ट्रों में बंटे भारत
को न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित एक राष्ट्र में पिरोने का मार्ग प्रशस्त किया
है जिसके कारण बाबा साहेब को भारत राष्ट्र
निर्माता और आधुनिक भारत का जनक कहा
जाता है।
भारत में
राष्ट्रवाद -
यह ऐतिहासिक
तथ्यों से सिद्द होता है कि आधुनिक समय में भारत को एकीकृत करने का श्रेय ब्रिटिश हुकूमत
को जाता है। आधुनिक समय में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लोगों को एकत्रित कर आज़ादी
का विगुल फूकने का श्रेय कांग्रेस को दिया जाता है। इसलिए आज भी कांग्रेस के राष्ट्रवाद
को ही भारत में राष्ट्रवाद के तौर पर स्वीकृति प्राप्त है।
ऐसे में, भारत के इस राष्ट्रवाद के मायने को जानने के लिए राष्ट्रवाद को उछालने वाले
संगठन की संरचना व इसके लोगों की सामाजिक पृष्ठिभूमि का जिक्र महत्वपूर्ण है।
यदि कांग्रेस की संरचना पर नज़र डाले तो हम पाते है कि कांग्रेस पूर्णतः ब्राह्मणों
के कब्जे में था। इसके केंद्र में ब्राह्मण ही रहें है। और, जो अन्य लोग इसके
सदस्य रहें हैं वो या तो क्षत्रिय है या फिर वैश्य। कांग्रेस की कार्यकारणी हो या फिर
इसके अध्यक्ष आदि पदों पर हमेशा से तथाकथित उच्च जातियों, खासकर ब्राह्मणों, का
ही कब्ज़ा रहा है। इसलिए इनके लिए इनके राष्ट्रवाद पर इनके सामाजिक पृष्ठिभूमि यानी
कि इनकी जाति, अमानवीय जाति व्यवस्था व हिंदुत्व का पूरा प्रभाव स्वाभाविक है।
कांग्रेस (और हिन्दू महासभा) के बारे में बाबा साहेब कहते है कि “यह कहने
का कोई लाभ नहीं कि कांग्रेस हिंदू संगठन नहीं है। एक ऐसा संगठन जो अपने गठन में हिंदू
ही है, वह हिंदू मानसिकता की ही अभिव्यक्ति करेगा, और हिंदू आकांक्षाओं का ही
समर्थन करेगा।“[21]
हालाँकि, कांग्रेस ने अपने आपको देश का प्रतिनिधि संगठन साबित करने के लिए कुछ
पिछड़े व दलित-आदिवासियों को सदस्य बनाया है। लेकिन, निर्णय व नीति-निर्धारण में
शोषितों की भूमिका शून्य ही रहीं है।
कुल मिलाकर कांग्रेस
के सभी निर्णायक पदों पर काबिज़ सांस्कृतिक तौर पर अपराधी जातियों ने ब्राह्मणी
हिन्दू धर्म के आधार पर हिन्दू राष्ट्र की कल्पना कर ब्राह्मणवाद को ही भारत
के राष्ट्रवाद के रूप में परिभाषित करते हुए प्रचारित और प्रसारित कर दिया है। यहीं
वजह है २०वीं सदी से लेकर आज की तारीख तक, भारत में हिंदुत्व के आलावा अन्य धर्मों,
पंथों, विचारधारों आदि को मानने वालों को राष्ट्रद्रोही करार दिया जाता रहा
है।
ऐसे में, स्पष्ट
है कि जहाँ एक तरफ रंगभेद (काला-गोरा)
अमेरिकी राष्ट्रवाद, नाजीवाद जर्मन रष्ट्रवाद,
फासीवाद इटैलियन राष्ट्रवाद, सस्ता कच्चा
माल और बड़े बाजार की आवश्यकता ब्रिटिश राष्ट्रवाद का आधार बना, तो वही दूसरी तरफ भारत
में अंग्रेजों को हटाकर शासन-प्रशासन पर पूर्ण रूप से ब्राह्मणों-सवर्णों के कब्जे
की नियत, ८५% बहुजनों और लगभग ७% सवर्ण स्त्रियों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक
गुलामी और ब्राह्मण-सवर्ण राज, कांग्रेस और गाँधी के राष्ट्रवाद का आधार बना।
फिलहाल, राष्ट्रवाद
के तमाम आधार हो सकते हैं। धर्म के आधार पर राष्ट्र और राष्ट्रवाद पर वर्णन किया जा
चुका है। इसलिए अब भारत के संदर्भ में भाषायी और जाति आधारित राष्ट्र और
राष्ट्रवाद पर प्रकाश डालना ज्यादा महत्वपूर्ण है।
भारत में
भाषायी राष्ट्रवाद -
भारत में भाषायी
राष्ट्रवाद ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही अस्तित्व में आ चुकी थी। भाषायी राष्ट्रवाद
के चलते ही भारत का पहला आन्दोलन १८९५ में शुरू हुआ। बाद के दिनों में,
ओड़िया राष्ट्रवाद के जनक मधुसूदन दास के नेतृत्व में चलने वाले आन्दोलन के परिणामस्वरुप
१९३६ में ओड़िया भाषा के आधार पर उड़ीसा, राज्य का दर्जा पाने वाला पहला राज्य अस्तित्व
में आया। इसके बाद फिर १९५२ में पोट्टी सीतारामालु के नेतृत्व में तेलगु
भाषा के आधार पर राज्य के पुनर्गठन की मांग की गयी, जिसके लिए पोट्टी सीतारामालु ने
भूख हड़ताल किया। जिसके चलते १६ दिसंबर १९५२ को उनकी मृत्यु हो गयी। जिसके पश्चात् १९५३
में तेलगु भाषा के आधार पर आंध्रा प्रदेश एक अलग राज्य बना।
इसके बाद पूरे
देश में भाषायी आधार पर राज्य के पुनर्गठन की मांग उठने लगी। कालान्तर में, भाषा
की अस्मिता जब राष्ट्र और राष्ट्रीयता से आगे निकलकर राष्ट्रवाद का रूप धारण करने लगी,
तो भाषा के आधार पर कई राज्यों का पुनर्गठन नितांत जरूरी हो गया। ये भाषायी
राष्ट्रवाद, देश को अस्थिर कर दे, देश की एकता और अखण्डता को तार-तार कर दे, इससे पहले
लोगों की भाषायी राष्ट्र और राष्ट्रीयता को सुरक्षित कर देना ही बेहतर होता है।
राष्ट्रवाद, कोई
भी हो, किसी भी आधार पर हो, देश की एकता और अखण्डता के लिए घातक ही होता है। इसलिए
कोई भी मुद्दा राष्ट्रवाद का आधार बने, उससे पहले उसे उचित संवैधानिक और लोकतान्त्रिक
मूल्यों व प्रावधानों के आधार पर हल कर दिया जाना चाहिए। बाबा साहेब
भाषायी राष्ट्रवाद के खतरे को भाप गए थे। इसीलिए देश की एकता और अखण्डता की महत्ता को
ध्यान में रखते हुए बाबा साहेब ने १४ अक्टूबर १९४८ को धार कमीशन
के सामने भाषायी आधार पर राज्यों के गठन का समर्थन किया है। बाबा साहेब
मराठी बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र की मांग करते हुए भाषा के आधार पर अन्य राज्यों
के पुनर्गठन करने की पैरवी करते है। साथ ही साथ, पूरे देश को भाषायी तौर पर एकता
के धाँगें में बांधकर देश की अखण्डता को मजबूत करने के लिए बाबा साहेब केंद्र
के राजकीय भाषा को सभी प्रांतों की भी राजकीय भाषा बनाने की भी वकालत करते है।
कालांतर में, हम
पाते हैं कि अलग-अलग समय पर भाषायी आधार पर अलग-अलग राज्यों का पुनर्गठन हुआ। जैसे
कि गुजरात (गुजराती), राजस्थानी (राजस्थानी), पंजाब (पंजाबी), हरयाणा (हरयाणवी),
पश्चिम बंगाल (बंगाली भाषा), तमिलनाडु (तमिल), केरल (मलयाली), कर्नाटक (कन्नड़), आसाम
(असमिया) आदि।
फ़िलहाल, अब क्षेत्रीय
बोली-भाषा को भी अस्मिता से जोड़कर अलग-अलग सहूलियतों की मांग की जा रहीं है, जैसे कि
भोजपुरी व मैथिलि आदि। ऐसे में महत्वपूर्ण व आवश्यक है कि ये माँग भोजपुरी
राष्ट्रवाद व मैथिलि राष्ट्रवाद का रूप धारण कर ले उससे पहले इस समस्या को
संवैधानिक और लोकतान्त्रिक तरीके से हल कर दिया जाना चाहिए।
भारत में जातीय
राष्ट्रवाद -
भारत में जातियों
का भी एक राष्ट्रवाद है, जो कि ब्राह्मणवाद की बुनियाद है। बाबा साहेब हिन्दू व्यवस्था को एक ऐसी बहुमंजिला इमारत कहते
है जिसमे ना तो कोई खिड़की है, और ना ही दरवाजे। जिसने जिस मंजिल पर जन्म लिया
है, उसे उसी मंजिल पर ही मरना है।[22] यहाँ तक
कि मरने के बाद भी जाति का बदनुमा दाग इन्सान के नाम से जुड़ा रहता है। भारत में जातियों
का एक अलग ही राष्ट्रवाद है। इसमें लोगों को सिर्फ और सिर्फ अपनी ही जाति में शादी
करने, साथ रहने, खाने-पीने व रिश्तेदारी-भाईचारे का अधिकार है। कुछ भी अंतरजातीय
करना हिन्दू धर्म के विरुद्ध है।
जाति खुद
भी अपने आप में एक राष्ट्र है। "वीज़ा के लिए प्रतीक्षा" में बाबा साहेब द्वारा
लिखी घटनाएँ जातीय राष्ट्रवाद का ही परिणाम है। इस जातीय व्यवस्था को बनाये रखने के
लिए आज २१वीं सदी में भी खाप पंचायते अमानवीय मनुस्मृति के आधार पर फरमान सुनाती है।
बीजेपी के शासन में अखिल भारत हिन्दू महासभा ने मेरठ में पहली “हिन्दू अदालत”[23]
की घोषणा की, जिसमे अमानवीय मनुस्मृति के आधार पर फैसले सुनाये जायेगें। आये दिन दलितों
के ऊपर इसलिए जुल्म किये जा रहें हैं क्योकि मानवीय संविधान के चलते दलित-वंचित जगत
के लोग अपने अधिकारों के लिए संविधान को हाथ में लेकर लोकतान्त्रिक तरीके से अपने हकों
के लिए आवाज बुलंद कर रहें है। महाराष्ट्र में ट्रैन यात्रा के दौरान एक दलित
बालक की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गयी क्योकि उसकी मोबाईल पर भीम गीत का रिंगटोन लगा
हुआ था। ११ जुलाई २०१६ को गुजरात के गिर सोमनाथ जिले की एक बस्ती के कुछ कथित
लोगों ने गोरक्षा के नाम पर दलित समुदाय के ७ लोगों को बहुत बुरी तरह से पीटा और फिर
उनके कपड़े फाड़कर बस्ती में लोगों के सामने घुमाया गया, “ऊना कांड”[24]।
बाबा साहेब की
प्रतिमाओं को जगह-जगह आज भी सिर्फ इसलिए तोडा जा रहा है क्योकि बाबा साहेब अछूत
समाज से है। ०५ मई २०१७ को “सहारनपुर में रैदास जयंती”[25], और मध्यप्रदेश-२०२०
में रैदास जयन्ती के दौरान ब्राह्मणो-सवर्णों द्वारा दलितों पर हमला किया गया। गुजरात में मूंछ रखने पर दलित युवा की
बेरहमी से पिटाई की गयी। रमाबाई नगर में भीम ज्ञान चर्चा के दौरान ब्राह्मणो-सवर्णों
द्वारा निहत्थे दलितों पर लाठी व धारदार हथियारों से हमला किया गया।[26] शादी में
घोड़ी चढ़ने पर ब्राह्मणो-सवर्णों द्वारा दलितों पर हमला सामान्य बात हो गयी है।[27] हैदराबाद
विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला[28] की सांस्थानिक
हत्या, राजस्थान में सरकार द्वारा पुरस्कृत मेधावी “डेल्टा मेघवाल”[29]
का उच्च-जातियों के अध्यापकों द्वारा बलात्कार और हत्या, दिल्ली स्थित जवाहर लाल
नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू के मृतक छात्र मुथुकृष्णनन[30], महाराष्ट्र
के टोपीवाला नैशनल मेडिकल कॉलेज में सवर्ण महिला डाक्टरों द्वारा आदिवासी
चिकित्सा छात्रा पायल तड़वी[31] की सांस्थानिक
हत्या जैसे मामले २१वीं सदी के दूसरे दशक में भी समाज को स्वीकार्य हो चुके
हैं।
स्कूलों-कॉलेजों
और विश्वविद्यालयों में नीची जाति के होने के कारण हर साल दर्जनों बहुजन
छात्रों की सांस्थानिक हत्या की जा रहीं है। आये दिन पिछड़े-दलित-आदिवासी समाज की बच्चियों
के साथ बलात्कार हो रहें है। ये सब अत्याचार दलित-आदिवासी बहुजन समाज के साथ इसलिए
हो रहा है क्योंकि ये सब नीची जातियों के हैं। स्वघोषित प्रगतिशील ब्राह्मण-सवर्ण
विद्वान सांस्कृतिक तौर पर अपराधी जातियों (ब्राह्मणो-सवर्णों) के लोगों का ये
कहकर बचाव करते है कि ये अपराध में संलिप्त अपराधी का निजी मामला है। ऐसे में सबसे
अहम् सवाल यह बनता है कि २०१२ में जब दिल्ली में एक सवर्ण लड़की के साथ गैंगरेप
होता है तो पूरे देश की बुनियाद हिला दी जाती है। भारत में जगह-जगह कैंडल मार्च निकाला
जाता है। लेकिन, इसी दौरान हरियाणा-दिल्ली समेत देश के तमाम हिस्सों में दलितों-आदिवासियों
और पिछड़े समाज की महिलाओं के साथ बलात्कार व सामूहिक बलात्कार होता है तो देश
की मीडिया और सरकार के कानों में जू तक नहीं रेंगती है। ये सत्तासीन सांस्कृतिक
तौर पर अपराधी जातियों का जातिवादी राष्ट्रवाद (हिन्दू राष्ट्रवाद) है।
हैदराबाद में एक
सवर्ण रेड्डी लड़की के साथ रेप होता है तो पुलिस तत्काल हरकत में आ जाती है। लेकिन,
दलितों के साथ हर पल हो रहें अत्याचार और बलात्कार को सामान्य जीवन का हिस्सा मान लिया
जाता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय कुमार बिष्ट द्वारा आधी रात को लखनऊ
की सड़कों पर अपनी महिला मित्र के साथ घूम रहें ब्राह्मण की हत्या के आरोप में
बगैर उचित जांच के जाट जाति के पुलिसकर्मी को सस्पेंड कर दिया जाता
है। ब्राह्मण की पत्नी को तत्काल क्लास-२ अफसर की नौकरी, फ़्लैट और करोड़ों
रूपये दिए जाते हैं। लेकिन क्या अजय कुमार विष्ट जैसों द्वारा यहीं बर्ताव कभी
बहुजनों के साथ आप सोच सकते हैं? कतई नहीं। ये जातीय राष्ट्रवाद का एक बेहतरीन उदहारण
हैं।
हमारे विचार से,
जातीय राष्ट्रवाद के संदर्भ में कश्मीर में शहीद जवानों के प्रति उत्तर प्रदेश की बीजेपी
सरकार के रवैये का जिक्र भारत में जातीय राष्ट्रवाद को स्पष्ट करने के लिए काफी
होगा। जम्मू-कश्मीर के हंदवाड़ा में आतंकवादियों से मुठभेड़ में शहीद हुए उत्तर प्रदेश
निवासी बहुजन समाज से ताल्लुक रखने वाले सैनिक अश्वनी यादव के संदर्भ में ०५ मई
२०२० को ट्विटर में माध्यम से अजय कुमार बिष्ट (@myogiadityanath) बीजेपी
के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार (@CMOfficeUP) कहती हैं कि "CM श्री @myogiadityanath जी ने जनपद गाजीपुर
निवासी @crpfindia के जवान श्री अश्विनी यादव की शहादत नमन करते हुए उनके परिजनों के
प्रति संवेदना व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि शोक की इस घड़ी में राज्य सरकार शहीद
के परिवार के साथ है, सरकार द्वारा परिवार को हरसंभव मदद प्रदान की जाएगी।“
जम्मू-कश्मीर के
ही हंदवाड़ा में आतंकवादियों से मुठभेड़ में 21 राष्ट्रीय रायफल्स के शहीद कर्नल आशुतोष
शर्मा के संदर्भ में ०३ मई २०२० को ट्विटर में माध्यम से अजय कुमार बिष्ट
(@myogiadityanath) बीजेपी के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार (@CMOfficeUP)
कहती हैं कि "CM श्री
@myogiadityanath जी ने ग्राम परवाना, तहसील सियाना, जनपद बुलन्दशहर के निवासी शहीद
कर्नल आशुतोष शर्मा के परिवार को ₹50 लाख का आर्थिक सहयोग देने तथा 01 परिजन को सरकारी नौकरी देने
की घोषणा की है। कर्नल आशुतोष की स्मृति में उनके पैतृक गांव में ‘गौरव द्वार’ का निर्माण
भी होगा।" उत्तर प्रदेश
की हिन्दू बीजेपी सरकार के ये दोनों ट्वीट भारत में जातीय राष्ट्रवाद का
प्रखर उदाहरण है। इस तरह का हिन्दू जातीय राष्ट्रवाद भारत के आम जनजीवन का हिस्सा बन
चुका है। ऐसा बर्ताव करने वाला कोई भी देश, क्या एक राष्ट्र हो सकता है? कतई नहीं।
आज २१वी सदी में
भी यदि कोई दलित जगत का युवक किसी सवर्ण युवती से प्रेम करे या शादी कर ले
तो ये लोग उस दलित को मौत के घाट उतार देते है। मौका पाकर उस दलित का पूरा
का पूरा गांव जला देते है (तमिलनाडु)[32]। अजितेश
(दलित) और साक्षी मिश्रा (ब्राह्मण) प्रेम करते है, और दोनों शादी कर लेते है।
इसके पश्चात ये दोनों अपनी सुरक्षा के लिए इलाहबाद हाईकोर्ट में आते है तो ब्राह्मण-सवर्ण
वकीलों द्वारा हाईकोर्ट परिसर में अजितेश (दलित) की कुटाई की जाती है[33]। ये सिर्फ
और सिर्फ अमानवीय जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए ही किया जा रहा है ताकि इनकी
जातिवादी सत्ता बनी रहे। ये जातीय राष्ट्रवाद का दूसरा उदहारण है।
यदि बहुजन समाज
पर हो रहें हमलों की क्रोनोलॉजी को समझे तो हम पाते हैं कि ये हमले इस स्थापित
मानसिकता के चलते किये जाते है कि दलित-आदिवासी जानवर है, पिछड़े इनके गुलाम है।
ये ब्राह्मण-सवर्ण जो भी चाहे इनके साथ कर सकते है। ऐसा करके ये इन नीची जातियों
को सबक सिखाते है कि तुम नीची जाति के हो। ये सब समाज में जाति की व्यवस्था और समाज
में ब्राह्मणों-सवर्णों के वर्चश्व को बनाये रखने के लिए ही किया जाता है। ये
भी जाति के आधार पर ही किया जाता है। ये जातीय राष्ट्रवाद ही है। यहीं हिंदुत्व है।
यहीं हिन्दू राष्ट्रवाद है।
ऐसे में, मौजूदा
दौर में दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों का हर सम्भव शोषण करना, बहुजनों के स्वप्रतिनिधित्व
एवं सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) के संवैधानिक-लोकतान्त्रिक मूलभूत मानवाधिकार को
खत्म करना, अमानवीय जाति व्यवस्था को बनाये रखना, समाज में भक्ति-पूजा-पाठ-कर्मकाण्ड-अन्धविश्वास
को बढ़ावा देना ही हिन्दू राष्ट्रवाद है। हिन्दू राष्ट्र व राष्ट्रवाद के खतरे
को भांपते हुए बाबा साहेब हर कीमत पर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनने से रोकने की
पुरजोर पैरवी करते है। हिन्दू राष्ट्रवाद कुछ और नहीं, बल्कि हिन्दू नाज़ीवाद है, हिन्दू
फांसीवाद है, हिन्दू आतंकवाद है, जो कि सदा सर्वथा मानवता के घोर हानिकारक है।
आज भारत में आरएसएस
और अन्य सभी ब्राह्मणी संगठन दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों की हत्या, बलात्कार और उनके
आरक्षण के विरोध, जाति-व्यवस्था को मजबूत करने, संविधान को नष्ट कर मनुस्मृति को स्थापित
करने की मंशा को राष्ट्रवाद नामक तोप (हथियार) के गोले के रूप में इस्तेमाल
कर रहें हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से स्पष्ट है कि राष्ट्रवाद एक अतिवाद है
जिसका परिणाम मानवता की हत्या, हिंसा और उपद्रव ही रहा है।
बाबा साहेब अमानवीय
जाति, क्रूर जाति व्यवस्था और निकृष्ट जातीय राष्ट्रवाद को भारत में सामाजिक
एकता, लोगों की स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के राह में विध्वंशकारी रोड़ा
और भारत राष्ट्र निर्माण के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते है। भारत को जाति व्यवस्था
के कैंसर से निजात दिलाये बिना भारत एक राष्ट्र कभी नहीं बन सकता है। इसलिए भारत राष्ट्र
निर्माण की राह प्रशस्त कर समूचे देश को एक सूत्र में बांधने के लिए बाबा
साहेब "जाति के उन्मूलन" की पैरवी करते है। बाबा साहेब भारत को एक राष्ट्र
के तौर पर विकसित करने का मार्ग प्रशस्त करने वाले एकलौते महामानव है। यहीं वजह रहीं है कि बाबा साहेब को भारत का राष्ट्र निर्माता और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है।
क्या भारत
में समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व राष्ट्रवाद की बुनियाद बन सकती हैं?
कुछ लोग राष्ट्रवाद
को सिर्फ सकारात्मक ही मानते है। लाज़मी है कि ये वही लोग हैं जो सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक-आर्थिक
पायदान पर समाज में सबसे ऊपर हैं। इसी तरह से कुछ लोग मानते हैं कि समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व
के आधार पर राष्ट्रवाद कायम कर देश को अखण्ड बनाये रखा जा सकता है। लेकिन, बाबा
साहेब अरब और तुर्की का उदहारण देते हुए कहते है कि “तुर्कों और अरबों के बीच
सेवाओं में अरबों के उच्चतम पद पर आसीन होने के मार्ग में कोई बाधा नहीं थी (स्वतंत्रता)।
राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी अरब और तुर्क आपस में
एक-दूसरे को बराबर मानकर चलते थे (समता)। अरब तुर्क-स्त्री से और तुर्क अरब-स्त्री
से विवाह करते थे (बंधुत्व)। क्या प्राप्त स्वतंत्रता और समानता
पर आधारित अरबों और तुर्कों के बीच इस्लामिक भाईचारे से अरबों को संतुष्ट
नहीं हो जाना चाहिए था। कोई भी कहे, अरब इससे संतुष्ट नहीं थे। अरब राष्ट्रवाद
ने इस्लाम के इस बंधन को तोड़ दिया और वह अपने ही मुस्लिम बंधुओं से, जो तुर्क थे,
अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने से नहीं चूके। उसे विजय मिली, परंतु तुर्की
पूर्णतया खंडित हो गया।“[34]
इसका तात्पर्य यह हुआ कि त्रिरत्नों को
राष्ट्र का आधार बनाया जा सकता है, लेकिन राष्ट्रवाद का भी यह आधार बनकर समूचे
राष्ट्र को एक सूत्र में बांध सके, जरूरी नहीं है।
इसी तरह से जब
चेकोस्लोवाकिया में राष्ट्रवाद की मांग उठी तो तुर्की की तरह चेकोस्लोवाकिया का
भी विखंडन हो गया।
क्या धर्म राष्ट्रवाद का आधार हो सकता है?
धर्म आधारित राष्ट्रवाद
की पैरवी करने वाले कुछ विद्वानों का मानना है कि धर्म के आधार पर एक राष्ट्र
को एक देश के तौर पर बनाया रखा जा सकता है। इस मुद्दे पर कुछ ज्यादा कहने से बेहतर
हैं कि इतिहास पर गौर किया जाय। इतिहास की तरफ रुख करने पर हम पाते हैं कि हिन्दू
राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद के चलते ही धर्म के आधार पर भारत से विखंडित
होकर पाकिस्तान एक अलग मुल्क बन गया। बाद में, समानधर्मी होने के बावजूद भी, प्रतिनिधित्व
और भाषायी राष्ट्रवाद के चलते पाकिस्तान से टूट कर बांग्लादेश एक स्वतन्त्र मुल्क बन
गया। स्पष्ट है कि धर्म को राष्ट्र का आधार तो बनाया जा सकता है, लेकिन धर्म राष्ट्रवाद का भी आधार बनकर समूचे
राष्ट्र को एक सूत्र में बांध सके, जरूरी नहीं है।
क्या अलग-अलग राष्ट्र बिना राष्ट्रवाद के एक साथ रह सकते है?
बाबा साहेब सवाल
करते है कि “क्या भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ
दो राष्ट्रों का अभ्युदय होने वाला है? कनाडा के विषय में क्या विचार है? क्या दक्षिण
अफ्रीका में डच और अंग्रेज दो राष्ट्र नहीं है? कौन नहीं जनता है कि स्विट्ज़रलैंड
में जर्मन, फ्रेंच और इटैलियन, ये तीन राष्ट्र हैं? क्या कनाडा में फ्रेंचों ने विभाजन
की मांग की, क्योकि वे एक पृथक राष्ट्र है? क्या अंग्रेजों ने अफ्रीका के विभाजन का
दावा किया, क्योकि बोसनिया से वे एक भिन्न और पृथक राष्ट्र है? क्या किसी ने कभी
सुना है कि जर्मन, फ्रेंच और इटैलियन्स ने स्विट्जेरलैंड से अलग होने के लिए कोई
आंदोलन किया, क्योंकि वे भिन्न-भिन्न राष्ट्र है? क्या जर्मन, फ्रेंच और इटैलियन्स
ने कभी यह अनुभव किया है कि यदि वे एक देश में एक संविधान के अंतर्गत एक नागरिक की
तरह रहते है तो उनकी निजी संस्कृतियों का लोप हो जायेगा। इसके बावजूद, उक्त सभी विभिन्न राष्ट्रों ने अपनी राष्ट्रीयता और संस्कृति
की क्षीणता से डरे बिना एक साथ संविधान के तहत रहने में संतोष प्रकट किया।“[35]
बाबा साहेब विभिन्न
संस्कृतियों के एक संविधान के तहत उनके सह-अस्तित्व और उनकी सुरक्षित राष्ट्रीयता
का उदहारण देकर कहते है कि “कनाडा में अंग्रेजों
के साथ रहकर ना तो फ़्रांसिसी फ्राँसिसियत से रिक्त हुए, और ना दक्षिण अफ्रीका में बोर्स के
साथ रहकर अंग्रेजों की अंग्रेजियत समाप्त हुई। जर्मन, फ्रेंच और इटैलियन्स एक
देश एक संविधान के साथ समान नाता जोड़ते हुए अभिन्न राष्ट्र रहें।“[36]
स्विटरलैंड में
तीन राष्ट्रों के सह-अस्तित्व, उनकी अस्मिता और स्विस राष्ट्रीयता का वर्णन करते
हुए बाबा साहेब लिखते है कि “स्विटरलैंण्ड
का मामला ध्यान देने योग्य है। यह उन देशों से घिरा हुआ है, जिनकी राष्ट्रीयताएं एवं
राष्ट्रीयताओं का धार्मिक तथा जातीय सम्बन्ध बहुत निकट से स्विटज़रलैंड की राष्ट्रीयताओं
से सम्बद्ध है। उक्त सादृश्यता के होते हुए भी स्विटज़रलैंड के निवासी सर्प्रथम स्विस
है, तत्पश्चात जर्मन, इटैलियन्स और फ्रेंच है।“[37]
स्पष्ट है
कि जहाँ पर राष्ट्रवाद
गैर-मौजूद रहा है वहां पर अपने राष्ट्र और राष्ट्रीयता को सुरक्षित रखते हुए एक
संविधान के तहत एक ही देश में लोग हंसी-ख़ुशी से रह
रहे है।
उपसंहार -
उपरोक्त तर्कों
से सिद्द हो चुका है कि राष्ट्रवाद एक तोप (हथियार) हैं जिससे अपनी मनमर्जी का गोला
दागकर अपने शत्रु को नष्ट किया जा सकता है। ब्रिटेन सस्ता कच्चा माल और
बड़े बाजार को, कांग्रेस-हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने धर्म को,
बांग्लादेश ने भाषा और प्रतिनिधित्व को, जर्मनी-इटली ने नाजीवाद और फांसीवाद
को राष्ट्रवाद नामक तोप के लिए गोले के तौर पर प्रयोग किया है। जिसके परिणामस्वरुप
तमाम देशों के व्यवस्थाएं बदल जरूर गयी, लेकिन मानवता की हत्या के बाद।
विश्व के इतिहास
पर गौर करने के पश्चात् स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवाद अपने आपमें एक अतिवाद
है, जो मानव-मानव को नफ़रत और असहिषुणता सिखाता है। राष्ट्रवाद जब अपनी पकड़ को
मजबूत कर लेता है तो दूसरों व दूसरी संस्कृतियों के लिए खतरा बन जाता है,
एक ही देश में एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के खिलाफ युद्ध के लिए तत्पर
हो जाता है, देश के विभाजन का कारण बन जाता है।
अतः बाबा साहेब
की वैचारिकी से स्पष्ट है कि बाबा साहेब भारत को बगैर किसी राष्ट्रवाद के न्याय
और समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित एक राष्ट्र के रूप देखना
चाहते है, जिसमें लोगों की राष्ट्रीयता भारतीय हो। इसलिए ही तो बाबा साहेब
कहते है कि "हम प्रथम और अंतिम तौर पर भारतीय हैं"।
रजनीकान्त (Rajani Kant)
एमएएच (इतिहास), इग्नू-नई दिल्ली
[1] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-२०-२१
[2] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१२-१३
[3] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय(२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-२१
[4] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१३१
[5] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१३१
[6] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-२५
[7] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-११
[8] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-११
[9] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-११
[10] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१२
[11] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१२
[12] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१२
[13] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१२
[14] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१२
[15] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१२
[16] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१३१
[17] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१७
[18] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९),
खण्ड-१५,
डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली,
पृष्ठ संख्या-१८५-१८६
[19] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा
साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक
न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-१६
[20] अम्बेडकर,
बी आर,
बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५,
डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली,
पृष्ठ
संख्या-१८
[21] अम्बेडकर, बी
आर, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ
आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ
संख्या-२९
[22]
मूकनायक सम्पादकीय, पहला अंक
[23]
नवभारत टाइम्स, मेरठ, १६ अगस्त २०१८; लोकमत
हिंदी, मेरठ १६ अगस्त २०१८ ; अमर उजाला, मेरठ, २४ अगस्त २०१८
[24] द वॉयर, सितम्बर
०७, २०१६; बीबीसी हिंदी जुलाई १९, २०१७; रणविजय सिंह, आजतक, जनवरी १०, २०१८
[25]
अमर उजाला, मेरठ, २३ व २९ जून २०१८; पत्रिका, सहारनपुर, २४ मार्च २०१८;
बीबीसी, शब्बीरपुर सहारनपुर, ०८ मई २०१७
[26]
बीबीसी, कानपुर १९ फ़रवरी २०२०
[27]
मण्डल, दिलीप, बीबीसी, मार्च ०६, २०१८; द वॉयर १३ फरवरी २०१९; लाल, रतन,
द प्रिंट हिंदी १७ मई २०१९
[28] अपूर्वानंद,
बीबीसी, १८ जनवरी २०१६; कुरैशी इमरान, बीबीसी २१ जून २०१८; मण्डल, दिलीप, द प्रिंट
१७ जनवरी २०१९
[30]
बीबीसी हिंदी, १३ मार्च २०१७
[31] हिंदुस्तान,
मुंबई, २६ जुलाई २०१९; ज्योति यादव, द प्रिंट २६ मई २०१९; द वॉयर २७ मई २०१९;
अमर उजाला, मुंबई, २४ जून, २०१९
[32] स्टैनिल,
सैम डेनियल, एनडीटीवी, १० दिसंबर २०१२; टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, नवम्बर ०९, २०१२; धर्मपुरी
हिंसा - २०१२ विकिपीडिया
[33]
दैनिक
जागरण, इलाहबाद, १५ जुलाई २०१९; अमर उजाला, इलाहबाद, १५ जुलाई २०१९; जनसत्ता,
इलाहबाद, १५ जुलाई २०१९
[34] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-२०९
[35] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-३६१
[36] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-३६१
[37] अम्बेडकर,
बी आर, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय (२०१९), खण्ड-१५, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-३६१
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