Friday, February 22, 2019

गाँवों से शहरों तक आज भी जिन्दा है जाति


आज मैं (दीपशिखा इन्द्रा) और मेरी दो बहनें लखनऊ में विकास नगर की ओर सुबह नौ बजे से निकले फ्लैट देखने निकले। काफी समय घूमने के बाद एक फ्लैट पसंद आया तो हमने मकान मालकिन से बात की। हमने पूछा 2BHK रूम खाली है? मकान मालकिन ने कहा- हाँ खाली है. फिर उसने पूछा क्या करते हो? कहां से हो? कितने लोग हो? हमने बताया. फिर उसने पूछा- तुम्हारी जाति क्या है? जब जाति पूछा तभी हम समझ गये कि रूम नहीं मिलेगा. फिर भी हमने बताया – SC समाज से. इस पर उस महिला ने कहा- हम नीची जाति वालों को नहीं मकान नहीं देते हैं। ये सुनकर गुस्सा तो बहुत आया लेकिन हम कुछ कर नहीं सकते थे। इतने घटिया मानसिकता वाले लोग हैं. ऐसी अन्य घटनाएं पहले भी हमारे साथ हो चुकी हैं। जब हम लखनऊ आये थे तब एक मिश्रा जी थे। उनकी पत्नी से मकान देखने के बाद हमने पैसे तक की बात सब कुछ तय कर ली थी लेकिन बाद में वही बात आ गई थी। आप किस जाति से हो? और जाति सुनते ही उन्होंने मकान देने से मना कर दिया। सबसे दुखद बात तो यह है कि तब वह मिश्रा अंकल जी भी हमारे साथ ही थे जो हमें रूम दिखाने ले गये थे।

न सिर्फ लखनऊ में बल्कि देश की राजधानी दिल्ली तक में हमने इस तरह के भेदभाव को झेला है. यह घटना 26 नवम्बर 2017 की है। उस समय हम दिल्ली में Made Easy में कोचिंग करते थे जो साकेत में है. हम DLF में रहते थे वहां से साकेत कोचिंग तक आने-जाने में एक घंटा लग जाता था और कोचिंग क्लास का समय सुबह साढ़े सात का था और क्लास में सीट अच्छे जगह मिले इसलिए हमें जल्दी जाना पड़ता था तो हम रूम से साढ़े पांच बजे के आसपास निकल जाते थे। उस दिन हम कोचिंग के लिए रूम से निकले और आटो में बैठें और अपना फोन निकाला। मेरे फोन के स्क्रीन पर बाबा साहेब की फोटो लगी थी तो आटो में बैठे एक व्यक्ति ने हमसे पूछा – तुम अम्बेडकरवादी चमार हो क्या? हमने बोला – हाँ। यह सुन कर उसने हमें आटो से निकल जाने को कहा. सबसे अधिक हैरानी तो तब हुई जब आटो में बैठे अन्य लोगों, जिनमे महिलाएं तक शामिल थीं, ने भी इसका विरोध करने की बजाय उस व्यक्ति की हाँ में हाँ मिलाई। उन्होंने कहा- ये लोग बहुत ज्यादा सर पर चढ़ गये हैं. चमार हैं तो साफ़ सफाई क्यों नहीं करते. उनके ऐसा कहने पर हमने ऑटो से उतरना ही मुनासिब समझा. दिल्ली जैसे खुद को आधुनिक कहने वाले शहर में शरे राह हुई इस तरह की घटना ने हमें अंदर से झकझोर दिया था। 

वैसे तो मैंने और मेरी बहनों ने इस तरह की घटनाओं को बचपन से झेला है लेकिन तब हमारे अबोध मन में यह बात नहीं आती थी कि स्कूल में गृह विज्ञान के प्रैक्टिकल के दौरान हमारी थाली और ग्लास को क्यों फेंका गया या अपनी सहेली जो कि सवर्ण जाति से आती थी, के घर जाने पर हमें दूसरे लोगों से अलग ग्लास में पानी क्यों दिया जाता था। समय के साथ इस तरह के व्यवहार का रहस्य उजागर होता गया। समय ने एक अच्छे शिक्षक की तरह हमें भारत में जाति की वर्णमाला से परिचित करा दिया। हमने अब यह जान लिया है कि क्यों स्कूल से लेकर मोहल्ले तक हमारे साथ होने वाले किसी भी छोटे मोटे झगड़े में चमार, चमाईन या बहन जी का नाम स्वतः शामिल हो जाता था। यह दरअसल हमारे समाज की वह कड़वी हकीकत है जिसे सब जानते बुझते और अपने जीवन में उसका पालन करते हुए भी स्वीकार करने से कतराते हैं। हम चाहें जितना आधुनिक होने का दावा कर ले जाति आज भी व्यक्ति के जीवन का केंद्र बिंदु और परिधी दोनों है। बहुत से लोग मानते हैं कि शहरों में जातिवाद नहीं है लेकिन यह सही नहीं है। जातिवाद शहरों में भी है लेकिन यहाँ इसका स्वरुप गांवों से थोड़ा भिन्न है। यहाँ बहुत बारीक़ किस्म का भेदभाव होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज शहरों ने गांवों तक को बदल दिया होता। हमने आज जो कुछ झेला वह हमारे लिए कोई नयी बात नहीं है लेकिन हमारा मानना है कि जब तक इस तरह कि बातें पुरानी नहीं होती नए भारत के निर्माण का सपना साकार नहीं हो सकता। जातिवाद आज भी हमारे देश की एक बड़ी समस्या है। दुर्भाग्य से शोषक जातियां जातिगत कारणों से शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसाए इस समस्या के अस्तित्व तक को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। मगर इससे यह समस्या समाप्त नहीं होगी। हमें पहले इस मर्ज को स्वीकार करना होगा। एक बार मर्ज को जानने के बाद महात्मा बुद्ध और बाबा साहब अंबेडकर के समता, स्वतंत्रता और बंधुता के त्रिरत्न रुपी औषधि का प्रयोग कर हम इस बीमारी को जड़ मूल से समाप्त कर सकते हैं। यहाँ यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि शोषक जातियां स्वेच्छा से अपने विशेषाधिकार को नहीं छोड़ने वाली। उन्हें इसके लिए बाध्य करना होगा। इसके लिए बहुजन समाज को पहले खुद जागना होगा। जो खुद सोया हो वह दूसरों को नहीं जगा सकता। 
दीपशिखा इन्द्रा, बी.टेक, एम.एस.डव्लू

(Published on Bahishkrit Bharat web portal on Feb. 22, 2019)

Tuesday, February 19, 2019

देवदासी प्रथा: धर्म की आड़ में अधर्म

हिन्दू धर्म में धर्म और आस्था के नाम पर हज़ारों वर्षों से लोगों का तरह-तरह से शोषण होता रहा है। इस धर्म में ऐसी अनेक प्रथायें अस्तित्व में रही हैं और आज भी कायम हैं जो न सिर्फ बर्बर, अपमानजनक और शोषणकारी बल्कि अमानवीय भी हैं। ऐसी ही एक बेहद घृणित और अमानवीय प्रथा को हम देवदासी प्रथा के नाम से जानते हैं।

देवदासी प्रथा हिन्दू धर्म की अत्यंत प्राचीन और सबसे घिनौनी प्रथा है। आज भी यह समस्या खासकर दक्षिण के राज्यों में बनी हुई है। धर्म और आस्था के नाम पर महिलाओं का शोषण हो रहा हैं। जिन छोटी छोटी मासूम बच्चियों के खेलने और पढ़ने के दिन होते हैं उन बच्चियों को देवदासी बनाकर धर्म और आस्था के नाम पर दान कर देते हैं। और फिर उनका पूरा जीवन धर्म, आस्था और शारीरिक शोषण के बीच जूझता रहता है। भारत में देवदासी प्रथा के चलते आज भी धर्म के नाम पर मंदिरों में महिलाओं का दैहिक शोषण हो रहा है। यहाँ एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि इस प्रथा में सवर्ण महिलाएँ नहीं हैं बल्कि सिर्फ अनुसूचित जाति, आदिवासी और ओबीसी जाति की महिलाएँ होती हैं।

असल में यह भी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणों की कुटिल चाल है जिसके अंतर्गत वे बहुजन मूलनिवासी समाज की महिलाओं को गुलाम बनाने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं। देवदासी प्रथा के तहत छोटी-छोटी मासूम बच्चियों को सजाया जाता है और उनका विवाह काल्पनिक भगवान की मूर्ति से कराया जाता है। विवाह संपन्न हो जाने के बाद इन बच्चियों के कपड़ों को लड़के उतारकर उन्हें निर्वस्त्र करते हैं जिसके बाद मंदिर का पुजारी या महंत उस बच्ची से शारीरिक संबंध बनाता है। ये सभी लड़कियां जो देवदासी होती हैं वो सब उस उम्र तक मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मण लोगों की हवस का शिकार बनती हैं जब तक कि उनका शरीर ढल नहीं जाता। तीस पार होने तक इनको देह व्यापार में धकेल दिया जाता है और इस तरह यह देवदासियां मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणों की आय का जरिया बनती हैं।

भारत में अभी भी ऐसे तमाम स्थान हैं जहाँ देवदासी प्रथा आज तक अस्तित्व में है। केरल, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली,उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग एवं झारखंड, तमिलनाडु, ओडिशा, उड़ीसा आदि में आज भी हम इस घृणित प्रथा का अमानवीय रूप देख सकते हैं। देवदासी प्रथा के पुरे फलसफे को समझने की कोशिश करें तो यह बात शीशे की तरह साफ़ हो जाती है कि यह धर्म के नाम पर सनातनी मनुवादी ब्राह्मणों द्वारा चलाया जा रहा महिलाओं के दैहिक शोषण का धंधा है जिसका शिकार बहुजन मूलनिवासी समाज की महिलाएँ होती हैं।


यह हैरान करने वाली स्थिति है कि आज जबकि पूरा देश मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की बात या मीटू अभियान की चर्चा कर रहा है किसी को भी हिन्दू धर्म की इस घृणित प्रथा के नाम पर यौन दासी बना दी गयी बेबस महिलाओं की चीख सुनाई नहीं सुन दे रही है। कहने को संविधान, कानून, अदालतें, मीडिया सभी हैं लेकिन इन देवदासियों को न्याय मिलना तो दूर इनकी व्यथा तक लोगों के सामने नहीं आती है। इसकी सबसे बड़ी वजह सत्ता में बैठे लोगों और शोषण में लिप्त लोगों के बीच का सम्बन्ध है जो समान सामाजिक वर्ग से आने के साथ साथ वैचारिक रूप से भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के समर्थक और पोषक हैं। यह स्थिति तब तक नहीं बदल सकती जब तक बहुजन समाज इस शोषणकारी व्यवस्था के मूल अर्थात हिन्दू धर्म की जड़ मान्यताओं पर प्रहार करने के लिए कृतसंकल्प नहीं होता। इसके लिए उसे बुद्ध और आंबेडकर की वैचारिकी को अपनाना होगा जो न सिर्फ समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है अपितु न्यायपूर्ण समाज के निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी दर्शन भी है।
दीपशिखा इन्द्रा, बी.टेक, एम.एस.डव्लू  
(Published on Bahishkrit Bharat web portal on Feb. 19, 2019)

Wednesday, February 6, 2019