भाषाविद, पुरातत्व वैज्ञानिक और मौजूद सबूत बताते है कि भारत की
सबसे प्राचीनतम जीवन-शैली बुद्धिज़्म पर आधारित थी। भारत के सवर्ण इतिहासकार कहते
है कि सिंघु घाटी की सभ्यता की खुदाई के दरमियान स्तूप मिले है जबकि प्रख्यात भाषा
वैज्ञानिक प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते है कि मौजूदा सबूत और सिंघु घाटी के
संरचना से निःसंदेह प्रमाणित होता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में स्तूप
नहीं मिले है बल्कि स्तूप की खुदाई में सिंधु घाटी की सभ्यता मिली है। इससे स्वतः
स्पष्ट होता है कि देश के मूलनिवासी बहुजन समाज की मूल सभ्यता (सिन्धु घाटी की
सभ्यता), जो कि बुद्धिज़्म की जीवन-शैली पर आधारित थी, कितनी समृद्धशाली थी।
कालान्तर में विदेशी ब्राह्मणी सभ्यता के आगमन, आक्रमण व अत्याचार के
परिणामस्वरुप धीरे-धीरे मूलनिवासी बहुजन समाज की बुद्धिज़्म पर आधारित
शान्तिप्रिय समृद्धशाली सिन्धु घाटी की सभ्यता मिट तो गयी लेकिन
धरती की कोख में अपने निशान छोड़ गयी। विदेशी ब्राह्मणी सभ्यता के षड़यंत्रकरों ने
समूचे भारत में ब्राह्मणवाद को फ़ैलाने के लिए मूलनिवासी बहुजन समाज से उनके
सारे हक़ छीन लिये। मूलनिवासी बहुजन समाज के जो लोग ब्राह्मणी व्यवस्था को
मजबूरन स्वीकार कर लिये उनको विदेशी ब्राह्मणों ने चौथे वर्ण का दर्ज़ा देकर
उन्हें अपना गुलाम बना लिया। जिन मूलनिवासी बहुजनों ने ब्राह्मणी व्यवस्था को
स्वीकार करने से इनकार कर दिया, उनकों विदेशी ब्राह्मणों ने अछूत व बहिष्कृत का
दर्जा देकर तथाकथित मुख्यधारा के समाज से बाहर कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप
बुद्ध की विरासत का ये सम्यक अनुयायी समाज जानवरों से भी बदतर जीवन जीने को
मजबूर हो गया। क्योंकि इनके सारे के सारे हक़ छीन लिए गये, जिसमे
शिक्षा सबसे अहम् है, और हम सब जानते है कि शिक्षा से ही समाज की
विचारधारा, इतिहास व सभ्यता जुड़ी हुई है।
जैसा कि हम कहते रहते है कि "किसी भी समाज को नष्ट करना
हो तो पहले उसकी शिक्षा खत्म कर दो, शिक्षा ख़त्म होने से विचारक मर जायेगें,
विचारकों के मर जाने से विचारधारा मर जाएगी, विचारधारा के मर जाने से इतिहास मर
जायेगा, इतिहास के मर जाने से उस समाज की सभ्यता मर जायेगी, और जब
उस समाज की सभ्यता मर जाएगी तो समाज खुद-ब-खुद ही नेस्तनाबूद हो
जायेगा।" बुद्धिज़्म की जीवन-शैली पर आधारित सिन्धु घाटी सभ्यता के
शान्तिप्रिय समृद्धशाली मूलनिवासी बहुजन समाज के साथ यही तो हुआ है। नतीजा,
भारत का कुछ बहुजन समाज गुलाम (शूद्र) बनकर रह गया है, तो कुछ अछूत, जिसका उदहारण
आज के भारत में तथाकथित हिन्दू समाज के रूप में स्पष्ट तौर पर
विद्यमान है।
किसी भी समाज की जो नींव होती है वो है उस समाज की जीवन-शैली, जिसे
उस समाज की सभ्यता या संस्कृति भी कहते है। आज बोधिसत्व विश्वरत्न
शिक्षाप्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के संघर्षों के फलतः
भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज को अपने कुछ संवैधानिक लोकतान्त्रिक मूलभूत
मानवीय हक़ मिल गये है। लेकिन दुःखद पहलू ये है कि भारत का मूलनिवासी बहुजन
समाज (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और सकल नारी समाज) आज
भी सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर ब्राह्मणी व्यवस्था का गुलाम है। मूलनिवासी बहुजन
समाज की मानसिक गुलामी का आलम यह है ये समाज अपनी इस मानसिक गुलामी की बेड़ियों को
तोड़ने के बजाय एक आदर्श गुलाम बनकर अपनी गुलामी से आनन्दित हो
रहा है।
भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज को जो भी सामाजिक-सांस्कृतिक
व राजनैतिक-आर्थिक अधिकार मिले है वो बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के संघर्षों का
परिणाम है। भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक- आर्थिक हकों
की बात करें तो इनमें अंग्रेजों ने बहुत अहम् योगदान दिया है। अंग्रेजों की वजह से
ही फुले-अम्बेडकर जैसे महामानव शिक्षित हो सके है जिसके परिणामस्वरूप उन्होनें
संघर्ष किया, और उनके संघर्षों की वजह से ही आज हमारी गिनती एक इन्सान के रूप
में, एक नागरिक के रूप में हो रही है।
फ़िलहाल इतनी जागरूकता के बावजूद भी, भारत का मूलनिवासी बहुजन समाज
ये समझता है कि १९४७ के पहले ये अंग्रेजों के गुलाम थे जबकि हकीकत यह है कि
भारत का मूलनिवासी समाज अंग्रेजों के गुलाम विदेशी ब्राह्मणों व इनकी ब्राह्मणी
व्यवस्था का गुलाम था। अंग्रेजों से जो आज़ादी मिली थी वो आज़ादी मूलनिवासी
बहुजन समाज को नहीं, बल्कि मूलनिवासी बहुजन समाज के शोषक (ब्राह्मणों व ब्राह्मणी
रोगियों) को मिली थी। भारत का मूलनिवासी बहुजन समाज तो सामाजिक और सांस्कृतिक तौर
पर आज भी ब्राह्मणी व्यवस्था का गुलाम नहीं, बल्कि आदर्श गुलाम है।
क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद जो आज़ादी हमें मिली वो सिर्फ और सिर्फ
राजनैतिक व आर्थिक हकों तक ही सीमित रह गया। सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर
मूलनिवासी बहुजन समाज को आज़ादी दिलाने के लिए बाबा साहेब ने ब्राह्मणों की
मनुस्मृति को खुलेआम आग के हवाले कर दिया। १४ अक्टूबर १९५६ को बाबा साहेब ने भारत
की सरज़मी से लगभग मिट चुके बुद्ध धम्म को अंगीकृत कर सकल मूलनिवासी बहुजन समाज को
उसके मूल जीवन-शैली से अवगत कराया और बुद्ध धम्म की तरफ चलने का रास्ता
दिखाकर बुद्ध धम्म को अपनाने की सलाह दी। लेकिन देश का मूलनिवासी बहुजन
समाज आज भी ब्राह्मणी व्यवस्था की कैद में जी रहा है, ब्राह्मणी पर्वों (होली,
दीवाली, दशहरा, रक्षाबन्धन आदि) को मानते हुए अपने शोषक विदेशी ब्राह्मणों की
विदेशी ब्राह्मणी संस्कृति पर अपनी कमाई लुटाते हुए जहाँ एक तरफ अपने
बच्चों को, अपनी आने वाली पीढ़ियों को ब्राह्मणी व्यवस्था का गुलाम बना
रहा है, वहीं दूसरी तरफ अपने मेहनत की कमाई को अपने शोषक की संस्कृति
(भगवन-भक्ति, देवी-देवता, मंदिर, कथा-प्रवचन, होली, दीवाली, दशहरा,
रक्षाबन्धन आदि) पर खर्च करके अपने शोषक को राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस् कृतिक
तौर पर और अधिक को मजबूत कर रहा है।
ऐसे में हमारा स्पष्ट मानना कि भारत के मूलनिवासी बहुजन
को चाहिए कि वो ब्राह्मणी पर्वो आदि को हमेशा-हमेशा के लिए बहिष्कार कर,
तिरष्कार कर, परित्याग कर, बुद्ध-अम्बेडकरी विचारधारा को आत्मसात कर भारत की मूल
सभ्यता और अपने मूलनिवासी समाज की अस्मिता को फिर से भारत के ही नहीं,
बल्कि दुनिया के फलक पर स्थापित करे। ऐसे में जरूरत है कि बाबा साहेब जो अभी
तक सिर्फ और सिर्फ एक राजनैतिक व्तक्तित्व बनकर रह गए है, उन महान बाबा साहेब
को, उनके विचारों को पूरी तरह से आत्मसात कर बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी
दर्शन को सकल मूलनिवासी बहुजन समाज अपने जीवन-शैली के तौर पर अपनायें, और
समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित तर्कवादी, मानवता व वैज्ञानिकता से ओत-प्रोत एक
नवीन भारत का सृजन करे।
इसी कड़ी में एलीफ (A-LEF) द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक
अस्मिता की स्थापना के सन्दर्भ में एलीफ (A-LEF) का बुद्ध-अम्बेडकरी का रवां
निरन्तर आगे बढ़ रहा है। जहाँ तक रहीं बात एलीफ की, तो ब्राह्मणी संस्कृति से पूरी तरह अलग मूलनिवासी बहुजन समाज
की सांस्कृतिक विरासत को एक नए सिरे से स्थापित करने हेतु मूलनिवासी बहुजन
महोत्सवों व महापर्वों (अम्बेडकर महोत्सव_१४ अप्रैल और दीक्षा-दीप
महोतसव / दीक्षा महादीपावली_१४ अक्टूबर) के माध्यम से बाबा साहेब को चौराहे,
गली और गांव-मोहल्ले की मूर्तियों से आगे ले जाते हुए हर बहुजन के घर व हर
बहुजन के ज़हन में बाबा साहेब, बाबा साहेब के दर्शन को स्थापित करने व एक नव
ऊर्जावान क्रन्तिकारी समता-स्वतंत्रता-बं धुत्व
पर आधारित तर्कवादी, मानवता व वैज्ञानिकता से ओत-प्रोत एक नवीन सांस्कृतिक धरोहर के पुनर्स्थापना के मिशन पर चल रही एक विचारधारा
है - एलीफ। एलीफ का मकसद मूलनिवासी बहुजन समाज को विदेशी ब्राह्मणी
संस्कृति से आज़ाद करा कर बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी विचारधारा से
जोड़ते हुए अपनी समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर
आधारित तर्कवादी, मानवता व वैज्ञानिकता से
ओत-प्रोत मूलनिवासी बहुजन समाज की सांस्कृतिक
विरासत व सत्ता को एक नए सिरे से स्थापित करना है। मूलनिवासी बहुजन समाज को
ब्राह्मणों के सारे तीज-त्यौहारो से मुक्त करा कर बहुजन समाज के अपने
महापर्व को स्थापित करते हुए अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को स्थापित करने व अपनी
सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने का मिशन है-एलीफ। इसकी
शुरुआत हमने (रजनीकान्त इन्द्रा) शिक्षा भूमि, अम्बेडकरनगर, उ.प्र. से १४
अप्रैल २०१६ को की थी। सांस्कृतिक विरासत को स्थापित करने के मिशन की शुरुआत
पर्वों से की गयी है क्योंकि किसी भी संस्कृति में पर्वों/त्यौहारों बहुत
महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए बहुजन समाज को ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था से अलग करने
की शुरुआत पर्वों से ही की गयी है। इसके बाद शादी आदि की परम्परा को भी नए सिरे से
स्थापित कर मूलनिवासी बहुजन समाज की अपनी स्वतंत्र व स्वच्छन्द पहचान के लिए
भी कार्यरत संस्था है-एलीफ।
फ़िलहाल मूलनिवासी बहुजन समाज के इस सामाजिक-सांस्कृतिक
कारवाँ के तहत दो मुख्य महापर्व चुने गए है-
(१) एलीफ (रजनीकान्त इन्द्रा) के नेतृत्व में १४ अप्रैल को
अम्बेडकर जयंती के रूप में मनाये जाने की परम्परा को खत्म करते हुए अम्बेडकर
महोत्सव / अम्बेडकर जन्म महोत्सव की शुरुआत की गयी है क्योंकि
जयन्ती सिर्फ एक दिवस बनकर रह जाता है, जयन्ती एक राजनैतिक शब्द है, इसका
ज्यादातर इस्तेमाल राजनीति के लिए ही होता है, और आज तक यही होता आया
है। इसलिए एलीफ १४ अप्रैल को अम्बेडकर महोत्सव / अम्बेडकर जन्म महोत्सव के रूप में मनाने और पूरी दुनिया में समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व
का सन्देश देने वाले ज्ञान व मानवता से ओत-प्रोत मूलनिवासी बहुजन महापर्व के
रूप में फ़ैलाने का काम कर रहा है।
हमारा स्पष्ट मानना है कि १४ अप्रैल सिर्फ और सिर्फ एक इन्सान का
जन्मदिन मात्र नहीं है बल्कि ये ज्ञान का जन्मदिन है, अम्बेडकरी दर्शन
का जन्मदिन है। इसलिए ज्ञान के प्रतीक बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के
जन्मदिन को राजनीतिक जयंती से आगे ले जाते हुए बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, उनके
बुद्ध-अम्बेडकरी दर्शन को, उनके जन्मदिन को मूलनिवासी बहुजन समाज
की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्थापित करने की सख्त जारूरत है। इसलिए
हमने "अम्बेडकर जयन्ती" की राजनितिक परम्परा को ख़त्म कर, मूलनिवासी
बहुजनों की सांस्कृतिक परम्परा में बाबा साहेब को शामिल कर मूलनिवासी बहुजन समाज
की अपनी अस्मिता को परवान चढ़ाने के लिए १४ अप्रैल को "अम्बेडकर
महोत्सव / अम्बेडकर जन्म महोत्सव" के नाम से एक महापर्व के रूप
मनाने की परम्परा की बुनियाद रखी।
(२) दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली -
मूलनिवासी बहुजन साथियों,
यदि मिथकीय रामायण की गाथाओं पर गौर करें तो हम पाते है
कि ब्राह्मणों की दीपावली नरसंहार व महाविद्वान महाराज रावण की हत्या का
जश्न है। हमारी निगाह में कोई भी सभ्य इंसान या समाज नरसन्हार को जश्न के रूप
में मानाने की इज़ाज़त नहीं देगा। इसलिए नरसंहार व महाप्रतापी महाविद्वान
महाराज रावण (मिथकीय ही सही) की हत्या से जुड़ीं ब्राह्मणी दीपावली का
बहिष्कार कर मूलनिवासी बहुजन समाज को चाहिए कि वो ज्ञान का दीपक जलाकर ज्ञान
का महापर्व मनाये।
हमारे निर्णय में, दीपावली का दीया ज्ञान का प्रतीक है।
बुद्ध, खुद भी, ज्ञान के प्रतीक है। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर भी ज्ञान के
प्रतीक है। इसलिए मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों को मानवाधिकारों के हनन
की प्रतीक ब्राह्मणी दीपावली का बहिष्कार कर, १४ अक्टूबर के दिन ज्ञान (बाबा
साहेब डॉ अम्बेडकर) को ज्ञान (बुद्ध) से सम्मानित करते हुए ज्ञान का
दीया जलाकर सारी दुनिया में ज्ञान, समता-स्वतंत्रता-बंधुत् व, तर्कवादिता, वैज्ञानिकता व मानवता का प्रकाश फ़ैलाने वाले दीक्षा-दीप महोत्सव
/ दीक्षा महादीपावली का महापर्व मनाना चाहिए। बुद्ध और बाबा साहेब के ज्ञान को ज्ञान प्रतीक दीपक से सम्मानित
करते हुए, सकल मानवता को ज्ञान का सन्देश देने वाले दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा
महादीपावली के महापर्व का मनाया जाना सर्वोत्तम है, बहुजन समाज की अपनी
सामाजिक व सांस्कृतिक अस्मिता हो स्थापित करने वाला है।
हमारे निर्णय में, हमें अपनी ज्ञान, समता-स्वतंत्रता-बं धुत्व, तर्कवादिता, वैज्ञानिकता व मानवता पर आधारित जीवन-शैली को खुद ही स्थापित करनी
होगी, वो भी एकदम नए सिरे से। हमारे महापर्व किसी की हत्या या किसी के
मनवाधिकार के हनन के प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि ज्ञान व मानवता के
महापर्व के रूप में मनाये जायेगें। हमारे सारे उत्सव ज्ञान के प्रतीक होगें जिनमे
हिंसा या मानवाधिकार का रत्तीमात्र भी अंश नहीं होगा।
कुल मिलाकर हम कह सकते है कि जब हम मूलनिवासी बहुजन समाज के
लोग अपने सामाजिक व सांस्कृतिक पक्ष पर नज़र डालते है तो हम पाते है कि ये
मूलनिवासी बहुजन समाज विदेशी ब्राह्मणों द्वारा थोपी गयी लूटमार, हत्या, बलात्कार
व अन्य अमानवीय कृत्यों पर आधारित ब्राह्मणी संस्कृति, ब्राह्मणी कर्मकाण्ड,
रीति-रिवाजों व कर्मकाण्डों आदि के साये में जी रहा है। आखिर कब तक आप दूसरों की
थोपी व अमानवीय कृत्यों पर आधारित संस्कृति के साये में जीते रहेगें, जबकि ये
स्थापित सत्य है कि ये विदेशी ब्राह्मणी संस्कृति ही मूलनिवासी बहुजन समाज की शोषक
है, हर तरह की गुलामी का कारण है? कब तक आप किराये का पर्व मानते रहेगें? कब तक आप
अपने पुरखों की हत्या का जश्न मानते रहोगे? आखिर कब तक? क्यों ना, हम सब भारत के
मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग एलीफ, शिक्षाभूमि, कर्मा
जगदीशपुर, अम्बेडकरनगर, उत्तर प्रदेश के अपने मूलनिवासी बहुजन
साथियों की भाँति ब्राह्मणी संस्कृति, ब्राह्मणी रीति-रिवाजों व ब्राह्मणी
कर्मकाण्डों आदि का पूर्णतः परित्याग कर, बहिष्कार कर, तिरस्कार कर
ज्ञान-विज्ञान व मानवता पर आधारित बुद्ध-अम्बेडकरी विचारधारा से ओत-प्रोत अपना
मूलनिवासी बहुजन महापर्व (१४ अप्रैल_अम्बेडकर महोत्सव / अम्बेडकर जन्म
महोत्सव और १४ अक्टूबर_दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महदीपावली)
मनाये और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को दुनिया के फलक पर स्थापित करें।
ऐसे में यदि सवालों के माध्यम से मूलनिवासी बहुजन साथियों को
मूलनिवासी बहुजन महापर्वों के बारे में जानकारी दी जाए तो सभी को
समझने व समझाने में आसानी होगी।
(१) १४ अप्रैल को अब अम्बेडकर जयंती के रूप में नहीं,
अम्बेडकर महोत्सव / आंबेडकर जन्म महोत्सव के रूप में क्यों मनाया जाना चाहिए ?
प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
हम सब जानते है कि स्वतंत्रता दिवस (१५ अगस्त) व गणतंत्र दिवस (२६
जनवरी) भारत के दो राष्ट्रीय पर्व हैं, लेकिन फिर भी ये दोनों
महापर्व सरकारी संस्थाओं व कुछ चुनिंदा संस्थानों को छोड़कर कहीं भी मनाया
जाता दिखाई नहीं पड़ता है, क्यों? क्योंकि ये दोनों ही महापर्व
राजनैतिक महापर्व हैं। ये दोनों महापर्व आज भी भारत की सामाजिक व सांस्कृतिक
विरासत का हिस्सा नहीं बन पायें है, लोगों की जीवन-शैली में आज भी शामिल नहीं हो
पायें है। जबकि ईद-क्रिसमस, ब्राह्मणी होली-दीवाली आदि राष्ट्रीय पर्व
तो नहीं है लेकिन सम्बन्धित समाज के हर घर में मनाये जाते है, लोगों के ज़हन में
बसते है, क्यों? क्योंकि इन पर्वों की अपनी सामाजिक व सांस्कृतिक
पहचान है। ये लोगों के जीवन में, उनकी सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत में शामिल है।
इसी तर्ज़ पर देखें तो हम पाते है कि किराये का अमानवीय
ब्राह्मणी पर्व मनाता आ रहा हमारा मूलनिवासी बहुजन समाज आज लगभग हर गांव, हर
गली और हर मोहल्ले में ज्ञान, समता-स्वतंत्रता-बं धुत्व, तर्कवादिता, वैज्ञानिकता व मानवता के संदेश से ओत-प्रोत अम्बेडकर जयंती मनाता नज़र तो
जरूर आता है, लेकिन आज भी अम्बेडकर जयंती मूलनिवासी बहुजन समाज के घरों तक नहीं
पहुँच पायी है। अम्बेडकर जयंती का सन्देश आज भी मूलनिवासी बहुजन समाज के जीवन-शैली
का अंग नहीं बन पाया है, क्यों? क्योंकि जयन्ती खुद एक राजनैतिक शब्द है, और बाबा
साहेब का जन्मदिन राजनीति मात्र से ही प्रेरित होकर मनाया जाता आ रहा है।
नतीजा, आज भी बाबा साहेब का जन्मदिन मूलनिवासी बहुजन समाज के जीवन-शैली का हिस्सा
नहीं बन पाया है। और तो और, आज का आलम यह है कि राजनीति से प्रेरित होकर
कभी भी किसी का भी जयन्ती मना दिया जाता है।
ऐसे में यदि हमें समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व का सन्देश देते
ज्ञान-विज्ञान व मानवता पर आधारित समाज व जीवन-शैली का सृजन करना है तो बाबा
साहेब व उनकी विचारधारा को गली-चौराहों आदि के साथ-साथ अपने-अपने घरों में
स्थापित कर अपने-अपने ज़हन में उतरना होगा। 14 अप्रैल में निहित संदेश को अपने
सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में उतार कर उनकों अपने सामाजिक व सांस्कृतिक
विरासत के तौर पर सृजित करना होगा। 14 अप्रैल को जयंती के बजाय महोत्सव व
महापर्व के रूप में मनाना होगा।
हमारा अटूट विश्वास है कि जैसे-जैसे बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर
हमारे घरों में आएंगे वैसे-वैसे समाज में फैली सारी ब्राह्मणी बुराइयां,
कपोल-कल्पित देवी देवता, ब्राह्मणी रीति-रिवाज, कर्मकांड, अंधविश्वास, ढोंग-पाखंड,
अमानवीय ब्राह्मणी हिंदू धर्म, तीज-त्यौहार व इनकी ब्राह्मणी संस्कृति
आदि हमारे समाज से, हमारे घरों से, हमारे जीवन से खुद-ब-खुद से ही बाहर होती
जायेगीं। और, वह दिन आएगा जब दुनिया में समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व, ज्ञान व
मानवता का परचम बुलंद होगा, दुनिया बुद्धमय होगी, अंबेडकरमय होगी।
(२) दीक्षा दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली क्या है?
प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
जैसा कि आप सब जानते हैं कि गौतम बुद्ध ज्ञान-विज्ञान के प्रतीक
हैं, बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर ज्ञान-विज्ञान के प्रतीक हैं, दीया ज्ञान-विज्ञान
का प्रतीक है। 14 अक्टूबर 1956 के दिन ही बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर ने बुद्ध
धम्म को अपनाकर भारत की सरजमी से लगभग पूरी तरह से मिट चुके बुद्ध
धम्म को नया जीवन दिया था, ज्ञान-विज्ञान व मानवता का दीया जला कर
दुनिया को समता-स्वतंत्रता और बंधुत्व का संदेश दिया था। इसलिए 14 अक्टूबर के दिन
ज्ञान का दिया जलाकर ज्ञान (बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर) को ज्ञान
(बुद्ध) से सम्मानित करने, ज्ञान-विज्ञान व मानवता को अपने जहन में शामिल
कर पूरी दुनिया में ज्ञान-विज्ञान व मानवता की सभ्यता स्थापित करने
और ज्ञान-विज्ञान व मानवता का प्रकाश फैलाने का महापर्व ही दीक्षा
दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली है।
(३) दीक्षा दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली की शुरुआत कैसे हुई?
प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
आज के दौर में जब हम भारत के सांस्कृतिक पक्ष पर नजर डालते हैं तो
हम पाते हैं कि भारत के मूलनिवासी बहुजनों की समृद्धिशाली जीवन-शैली या सभ्यता
(संस्कृति) का पूर्ण ब्राह्मणीकरण हो जाने की वजह से कोई भी ऐसा पर्व नहीं बचा
जिसे बहुजन समाज अपना कह सके। हमारा मानना है कि बहुजन समाज को ब्राह्मणों से
पूर्ण रुप से अलग और स्पष्ट अपनी अस्मिता, पहचान व जीवन-शैली की आवश्यकता है। इसकी
शुरुआत के लिए हमने बाबा साहब के ६०वें महापरिनिर्वाण वर्ष 2016 के
अक्टूबर महीने की 6 तारीख को एलीफ के कारवां चर्चा के
तहत शिक्षा भूमि, कर्मा जगदीशपुर, अंबेडकर नगर, उत्तर प्रदेश के
लोगों के समक्ष ब्राह्मणों से पूरी तरह से अलग अपने पर्व को स्थापित करने का
प्रस्ताव रखा। परिणामस्वरुप, लोगों ने सर्वसम्मति से सभी ब्राह्मण मंदिरों,
धर्मशास्त्रों, रीति-रिवाजों, तीज-त्यौहारों और कर्मकांडों आदि का पूर्ण
रुप से परित्याग कर, हमारे द्वारा प्रस्तावित दो बहुजन महापर्व 14
अप्रैल_अंबेडकर महोत्सव और 14 अक्टूबर_दीक्षा दीप महोत्सव को
सहर्ष स्वीकृत किया। फलतः शिक्षा भूमि के आसपास के सभी गावों ने
पहली बार 14 अक्टूबर 2016 को मीठे पकवान व बच्चों संग अपने सगे-संबंधियों को
किताब-कलम व अन्य शिक्षा सामग्री का उपहार बांटते हुए ज्ञान-विज्ञान व मानवता
प्रतीक कतार-ए-दीया जलाकर बहुजन महापर्व दीक्षा दीप महोत्सव /
दीक्षा महादीपावली की शुरुआत की। अतः हम आप सब मूलनिवासी बहुजन
समाज के लोगों से निवेदन करते हैं कि आप लोग भी सभी ब्राह्मण मंदिरों,
धर्मशास्त्रों, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों व तीज-त्यौहारों आदि का
पूर्णरूपेण परित्याग कर सिर्फ और सिर्फ अपना बहुजन महापर्व ही मनाए और इसमें निहित
ज्ञान-विज्ञान व मानवता के संदेश को हर बहुजन, हर मानव तक पहुंचाएं।
(४) दीक्षा दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली कैसे मनाया
जाता है?
प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
दीक्षा दीप महोत्सव / दीक्षा महा दीपावली (14 अक्टूबर) बुद्ध-अम्बेडकर
दर्शन पर आधारित समता-स्वतंत्रता और बंधुत्व का संदेश देता
मानवता का महापर्व है। ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा-मानवता, सुख-शांति, सम्मान व समृद्धि
का महोत्सव है। इसमें दिन के समय में बुद्ध-अंबेडकर दर्शन की
छाँव में कारवां चर्चा करते है। सांयकाल में घर के
किसी भी सदस्य (स्त्री-पुरुष कोई भी) के नेतृत्व में घर के बाकी सभी सदस्यों
के साथ बुद्ध वन्दना, त्रिशरण, पंचशील और बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर द्वारा
दिलायी गयी २२ प्रतिज्ञा को आत्मसात करते हुए बुद्ध-अम्बेडकरी जीवन-शैली पर
आधारित जीवन जीने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना, रात्रि में अपने-अपने
घरों, सार्वजनिक जगहों, खेतों-खलिहानों और अन्य समुचित जगहों पर बुद्ध-अम्बेडकर,
ज्ञान, शिक्षा व मानवता प्रतीक दीपों की कतार जलाकर, घर पर स्वादिष्ट
पकवान और मिठाइयां बनाकर, और एक दूसरे, खासकर बच्चों को, किताब कलम व शिक्षा
सामग्री का उपहार देकर मनाया जाता है। इस मूलनिवासी बहुजन महापर्व में उन सभी
चीजों कृत्यों की सख्त मनाही है जो तर्क, वैज्ञानिकता, संविधान प्रदत्त
मूलभूत मानवाधिकारों, समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के सिद्धांत के खिलाफ है, पर्यावरण
के खिलाफ है जैसे कि प्रदूषण फैलाते पटाखे आदि। इस महोत्सव में
राजनैतिक-आर्थिक, सामाजिक-सांस् कृतिक व मानसिक प्रदूषण जैसे कि
ब्राह्मणवाद, ब्राह्मण कर्मकांड, ब्राह्मण रीति-रिवाज, ब्राह्मणी मानसिकता,
भगवान-भक्ति, पूजा पाठ और अंधविश्वास से प्रेरित हर कृत्य की सख्त मनाही है। साथ ही साथ सबसे अहम् बात यह है कि इन महापर्वों को मानाने
में और अपने इन महापर्वों को दुनिया के पटल पर स्थापित करने में कोई भी
खर्च नहीं आएगा क्योकि आज तक जो पैसा आप ब्राह्मणी पर्वों को मानाने के लिए खर्च
करते आ रहे थे अब ब्राह्मणी पर्वों का बहिष्कार कर वही पैसा आप अपने बहुजन
महापर्व पर खर्च कीजिये। जो पैसा आप ब्राह्मणी दीपावली के अवसर पर पटाखों के
लिए खर्च करते थे अब उसी पैसे से दीक्षा महादीपावली (१४ अक्टूबर) के
दिन बच्चों के लिए किताब-कलम व अन्य शिक्षा सामग्री खरीद कर बच्चों को गिफ्ट
कीजिये। जो पैसा आप होली पर खर्च करते थे, अब होली का परित्याग कर उसी पैसे
को अम्बेडकर महोत्सव (१४ अप्रैल) पर खर्च कीजिये। जो मिठाई-पकवान, कपडे आदि आप
ब्राह्मणी पर्वों के दिन बनाते थे, खरीदते थे वही मिठाई-पकवान, कपडे आदि आप
अपने मूलनिवासी बहुजन महापर्वों पर बनाइये, खरीदिये। ऐसा करने मात्र से आपका अपना ज्ञान, समता-स्वतंत्रता-बं धुत्व,
तर्कवादिता, वैज्ञानिकता व मानवता पर आधारित मूलनिवासी बहुजन महापर्व स्थापित हो जायेगा। परिणाम स्वरुप आप,
आपके बच्चे और आने वाली पीढ़ियाँ गर्व से कह सकेगीं कि १४ अप्रैल_अम्बेडकर महोत्सव / अम्बेडकर जन्म महोत्सव और १४ अक्टूबर_दीक्षा-दीप महोत्सव /
दीक्षा महादीपावली आपका अपना महापर्व है।
(५) राजनैतिक सत्ता और सांस्कृतिक सत्ता में क्या अंतर
है?
प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
हमारा मानना है कि समाज में सत्ता में दो तरह की होती हैं। एक, राजनैतिक
व आर्थिक सत्ता। इसमें राजनीति और अर्थनीति दोनों एक-दूसरे से बहुत करीबी से
जुड़े होते हैं। इसलिए इनको एक ही खांचे (राजनैतिक सत्ता) में रखा गया
है। दूसरी, सामाजिक व सांस्कृतिक सत्ता। इसमें सामाजिक व
सांस्कृतिक पहलू एक-दूसरे से बहुत करीब होने के कारण इनको एक अलग खांचें (सांस्कृतिक
सत्ता) में रखा गया है।
हम राजनीतिक सत्ता को सांस्कृतिक सत्ता स्थापित कर दुनिया के फलक
पर अपनी सांस्कृतिक पहचान को स्थापित करने और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सृजित करने
का एक सशक्त माध्यम मानते हैं। हम इन दोनों सत्ताओं में सांस्कृतिक
सत्ता को ज्यादा ताकतवर और दीर्घजीवी मानते हैं। इसको हम इस उदाहरण से समझ
सकते हैं कि राजनीतिक सत्ता ब्राह्मण के हाथ में लगभग कभी नहीं रही है लेकिन
फिर भी वह समाज के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठता है। एक नैतिकताविहीन, चरित्रहीन
नीच ब्राह्मण भी क्षत्रिय सम्राट से ऊंचा व पूज्यनीय समझा जाता है। ऐसा
सिर्फ और सिर्फ इसलिए है क्योंकि ब्राह्मणों ने सांस्कृतिक सत्ता पर अपना प्रभुत्व
जमा रखा है।
इन दोनों सत्ताओं के अंतर को हम कुछ इस तरह से भी देख सकते हैं।
राजनीतिक सत्ता कुछ वर्षों तक ही चलती है जबकि सांस्कृतिक सत्ता सहस्त्राब्दियों
तक चलती है। राजनीतिक सत्ता क्षणिक होती है, भौतिक होती है, जबकि सांस्कृतिक
सत्ता दीर्घजीवी व जहनवासी होती है। किसी समाज की राजनीतिक सत्ता उस समाज की
हार्ड पावर होती है जबकि सांस्कृतिक सत्ता सॉफ्ट पावर। उदाहरणस्वरूप- कितने ही
शक्तिशाली राजा पैदा हुए लेकिन उनकी सत्ता एक समय पर आकर थम जाती है, और फिर मिट
जाती है। जबकि इतिहास, मौजूदा सांस्कृतिक सबूत गवाह है कि समाज में कायम
सांस्कृतिक सत्ता अपने वजूद को दीर्घकाल तक बनाए रखती है। यदि कोई समाज राजनीतिक
सत्ता से बेदखल भी हो जाए तो उसके कुछ अधिकारों पर ही फर्क पड़ता है लेकिन
यदि उस समाज की संस्कृति ही मिट जाए या उसकी सांस्कृतिक पहचान मिटा
दी जाए तो वह समाज स्वतः ही जानवर या उस से भी बदतर हो जाता है जैसे कि भारत
का अछूत-बहिष्कृत समाज।
ब्राह्मणी व्यवस्था में दरिद्र नीच चरित्रहीन ब्राह्मण भी
पूजनीय है, क्यों? क्योंकि ब्राह्मणों ने अपनी संस्कृति ही ऐसी बनाई है कि
ब्राह्मणों की सत्ता सदा कायम रहे। ब्राह्मणों की सांस्कृतिक सत्ता के कारण ही एक
क्षत्रिय सम्राट भी दरिद्र नीच चरित्रहीन ब्राह्मण का चरण स्पर्श
करता है।
जैसा कि सर्वविदित है कि बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के बताये रास्ते
पर चलते हुए मान्यवर कांशीराम साहेब ने देश के बहिष्कृत गुलाम समाज को हुक्मरान की
कतार में खड़ा कर दिया है। परिणामस्वरूप, देश के मूलनिवासी बहुजन समाज की राजनैतिक
अस्मिता कायम हो चुकी है। देश के इस मूलनिवासी समाज को नज़रअंदाज कर कोई भी राजनीति
नहीं कर सकता है। इसके बावजूद भी देश का मूलनिवासी बहुजन समाज आज भी सुरक्षित नहीं
है।
ऐसे में हमारा स्पष्ट मानना है कि राजनैतिक सत्ता कुछ समय के लिए
क्षणिक सुरक्षा तो दे सकती है लेकिन पूरे समाज को लम्बे दौर तक सुरक्षा कतई नहीं
दे सकती है। यदि पूरे मूलनिवासी बहुजन समाज को अपनी सुरक्षा करनी है तो अपने
मूलनिवासी बहुजन समाज की अपनी स्वतंत्र सामाजिक व सांस्कृतिक अस्मिता कायम
करनी पड़ेगी। इसको हम इस बात से भी समझ सकते है कि यदि राजनीति और संविधान से
ही सकल मूलनिवासी बहुजन समाज सुरक्षित हो जाता तो बोधिसत्व विश्वरत्न
शिक्षाप्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर को धम्म की बात नहीं
करनी पड़ती। बाबा साहेब अच्छी तरह से जानते थे कि संविधान व राजनीति मात्र से
मूलनिवासी बहुजन समाज को पूरी सुरक्षा नहीं मिल सकती है। इसलिए बाबा साहेब
सकल मूलनिवासी समाज की अपनी स्वतंत्र सामाजिक व सांस्कृतिक अस्मिता को स्थापित
करने के लिए ही बुद्धिज़्म की जीवन-शैली की तरफ जाते है।
सांस्कृतिक सत्ता मतलब कि एक पूरे समाज की अपनी स्वतंत्र जीवन-शैली
व अस्मिता के मायने को हम इस तरह से भी समझ सकते है कि जनगणना २०११ के अनुसार देश में
मुस्लिमों की आबादी तकरीबन लगभग १९ करोड़ के आस-पास है, सिखों की जनसंख्या भी 20833116
है, जैनियों की जनसंख्या 4451753, पारसियों की आबादी 57264,
ईसाईयों की आबादी 27819588, यहाँ तक कि बुद्धिष्ट की आबादी भी ८५ लाख के
आपपास ही है। लेकिन यदि भारत में इनकी
सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक- आर्थिक सुरक्षा पर गौर करें तो हम
पाते है कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के जनसँख्या की तुलना में इन सबकी
जनसंख्या बहुत ही कम होने के बावजूद भी इन सबकी बहन-बेटियाँ सुरक्षित है।
क्या कभी किसी ने सुना है कि किसी सिक्ख, जैनी, मुस्लिम, पारसी या ईसाई की
बहन-बेटी के साथ कभी गैंग-रेप हुआ, छेड़खानी हुई है? सामान्यतः नहीं, जबकि ये लोग
राजनीतिक तौर पर उतने सशक्त और सक्रिय नहीं रहें है जितने कि भारत के दलित,
आदिवासी और पिछड़े समाज के लोग है। फिर भी ये लोग भारत के दलित, आदिवासी और पिछड़े समाज की तुलना में
पूरी तरह से महफूज़ है, क्यों? क्योंकि इन सबकी आबादी भले ही कम है लेकिन इनकी
अपनी स्वतन्त्र सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है। जबकि देश का
दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग आज भी दूसरे की सांस्कृतिक पहचान (ब्राह्मणी समाज की
पहचान) की आड़ में जी रहा है। नतीजा, देश का मूलनिवासी बहुजन समाज
(दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग) आज भी राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस् कृतिक तौर
पर ब्राह्मणी अत्याचारों-अनाचारों को सहन करने मजबूर है।
हमारे निर्णय में, यदि देश के मूलनिवासी बहुजन समाज (अनुसूचित
जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग) को अपनी बहन-बेटियों की पूर्ण सुरक्षा करनी
है, मान-सम्मान व स्वाभिमान के साथ जीना है तो मूलनिवासी बहुजन समाज को अपनी
राजनैतिक सत्ता (जो कि क्षणिक सुरक्षा देती है लेकिन सांस्कृतिक सत्ता को स्थापित
करने का एक सशक्त और अहम् माध्यम है) के साथ-साथ अपनी स्वतंत्र सांस्कृतिक सत्ता
(जो कि स्थायी सुरक्षा देती है) को स्थापित करना होगा। यदि मूलनिवासी बहुजन
समाज अपनी ब्राह्मणी गुलामी से मुक्ति चाहता है, स्वाभिमान व मान-सम्मान के साथ
जीना चाहता है, अपनी बहन-बेटियों को सुरक्षित देखना चाहता है, महफूज़ जीवन जीना
चाहता है, शकुन और शान्ति से रहकर बौद्धिक विकास करना चाहता है, या यूँ कहें
कि भारत में समता-स्वतंत्र-बंधुत्व-तर् कवाद-वैज्ञानिकता पर
आधारित मानवीय समाज का सृजन करना चाहता है तो देश के सकल मूलनिवासी बहुजन को
अपनी स्वतंत्र सामाजिक व सांस्कृतिक अस्मिता को स्थापित करना ही होगा।
इसलिए आप सब ब्राह्मणी जीवन-शैली, ब्राह्मणी संस्कृति, ब्राह्मणी कर्मकाण्ड, रीति-रिवाजों व
कर्मकाण्डों आदि का बहिष्कार कर, परित्याग
कर, तिरस्कार कर, ब्राह्मणी मानसिक गुलामी से मुक्त होकर समता-स्वतंत्र-बंधुत्व-तर् कवाद-वैज्ञानिकता का
सन्देश देती बुद्ध-अम्बेडकरी विचारधारा पर आधारित अपनी
सांस्कृतिक अस्मिता को स्थापित करने के एलीफ की इस सांस्कृतिक अस्मिता की पहल में
साथ आइये। अपनी कमाई ब्राह्मणी दीपावली व अन्य सभी ब्राह्मणी पर्वों या
ब्राह्मणी संस्कृति की कैदी पर्वों आदि पर खर्च करने के बजाय ब्राह्मणी
दीपावली व अन्य सभी पर्वों का बहिष्कार कर बुद्ध-अम्बेडकरी
विचारधारा पर आधारित समता-स्वतंत्र-बंधुत्व- तर्कवाद-वैज्ञानिकता का
सन्देश का देने वाले ज्ञान व मानवता के अपने मूलनिवासी
बहुजन महापर्व दीक्षा दीप महोत्सव / दीक्षा महदीपावली (१४ अक्टूबर) को
अपनाये, मनायें, और दुनिया के फलक पर अपने मूलनिवासी बहुजन समाज की सांस्कृतिक
अस्मिता फिर से स्थापित करें।
सनद रहे,
एक घर में चार भाईयों के बीच झगड़ा-मनमुटाव व कलह
सिर्फ तब तक ही रहता है जब तक कि चारों भाई एक ही घर में एक साथ रहते
है। लेकिन जैसे ही चारों भाई अलग-अलग हो जाते है, उनकी अपनी पहचान स्थापित हो
जाती है, उनके अपने घर बन जाते है इन सभी भाइयों का कलह-कलेश स्वतः ही कम हो जाता
है, चारों भाई हक़-अधिकार के सन्दर्भ में बराबर हो जाते है। नतीजा, समय के साथ-साथ
उन चारों भाईयों (घरों) के बीच एक सन्तुलन व सामंजस्य की स्थिति स्वतः
ही स्थापित हो जाती है। इसलिए भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज को ब्राह्मणों व
इनकी ब्राह्मणी व्यवस्था से अलग अपने सांस्कृतिक घर व अपनी सांस्कृतिक पहचान को
स्थापित करना ही होगा। इसी में भारत की ८५% आबादी वाले मूलनिवासी बहुजन
समाज की, मानवता की और भारत की मुक्ति निहित है।
रजनीकान्त इन्द्रा, संस्थापक - एलीफ
(अगस्त ३०, २०१८)
(Published
in September 2018, Page No. - 18 to 21, Depressed Express )