भारत लोकतंत्र अभी अपने ट्रांजिशन फेज़ से गुजर रहा है। सालभर लगभग किसी न किसी राज्य में इलेक्शन होते रहते है। इसी क्रम में अगला महत्वपूर्ण चुनाव लोकसभा-२०१९ है। ये चुनाव भारत को ब्राह्मणों-सवर्णों और अन्य ब्राह्मणी आतंकवादियों से मुक्त कराने के लिए सबसे अहम् चुनाव है।
ऐसे में ब्राह्मणी आतंकी संगठनों और पार्टियों को मात देने के लिए जो पार्टी राजनैतिक विशेषज्ञों और आम जनता के ज़हन में चर्चा का केंद्र है वो है बहुजन समाज पार्टी। ये वही पार्टी है जिसके शासन में ब्राह्मणी आतंकवादी प्रदेश छोड़ देते थे, गुण्डे जेल में होते थे, महिला समाज पूर्णतयः सुरक्षित होता था और वंचित-आदिवासी-अल्पसंखयक बहुजन समाज सुख-शान्ति से अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहा होता था, बहुजन इतिहास को कब्र से खोद कर दुनिया के पटल पर रखा गया, बहुजन महापुरुषों को विश्वपटल पर स्थापित कर दिया गया, शिक्षा और रोजगार बेहतर हुए, तमाम स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय खोले गए जिसके परिणामस्वरूप पूरा उत्तर प्रदेश दंगामुक्त सुख-शान्ति प्रिय बुद्ध-रैदास का प्रदेश बन चुका था।
लेकिन आज हालत ठीक उल्टा हो चुका है। बलात्कार एक प्रथा बन चुकी है। बलात्कारी मौजूदा सरकार के संरक्षण में स्वतंत्र घूम रहे है। पुलिस की गुंडागर्दी ये है कि अपराधियों के हाथ में हाथ डालकर बेगुनाह दलितों-आदिवासियों-अल्पसंखयकों व पिछड़ों को घर का दरवाज़ा तोड़कर कर बिना किसी गुनाह के गिरफ्तार कर रही है। विश्वविद्यालयों पर खुलेआम हमले हो रहे है। अनगिनत रोहित वेमुला रोज शहीद किये जा रहे है। हर पल कोई ना कोई आसिफा मंदिरों में चीख-चीखकर दम तोड़ रही है। स्कूलों में रोज किसी ना किसी डेल्टा मेघवाल का दरिन्दों द्वारा बलात्कार कर निर्मम हत्या की जा रही हैं। लड़कियों को, औरतों को सरेआम रोड पर नंगा कर परेड कराया जा रहा है। मूँछ रखने पर दलितों की मूंछ उखड दी जा रही है। मृत गाय को ना उठाने पर बेरहमी से पिटाई की जा रही है। काम करने से माना करने पर आदिवासी-दलित-पिछड़े समाज के लोगों को जूते से मूत्र पिलाया जा रहा है। ब्राह्मणी आतंकवादी सरेआम शूद्रों की बहन-बेटियों को घर से उठा ले जा रहे है, बलात्कार कर हत्या कर दे रहे है। गुंडागर्दी सरकारी धन्धा बन चुका है। बहुजनों पर अत्याचार मनुवादियों के लिए मौत सस्ती हो गयी है। ब्राह्मणी भगवा आतंकवाद चरम पर है। अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। बेरोजगारी का आलम जेठ की दुपहरी की तरह अंगारे बरसा रही है। बहुजन नौजवान रोजी-रोटी के लिए गली-गली भटक रहा है। भ्रष्टाचार सरकार का मक़सद बन चुका है। देश की आन-बाण-शान तिरंगें के स्थान पर ब्राह्मणी आतंकवादियों के भगवा झण्डे ने कब्ज़ा कर लिया है। नीरव मोदी, विजय माल्या जैसे लोग मजदूरों के मेहनत की कमाई लेकर फरार हो चुके है। जिओ आसमान की बुलंदी छू रहा है तो बीएसएनएल समुद्र की गहराई में दम तोड़ रहा है। सरकारी सेक्टर को चंद उद्योग घरानों की जेब में गिरवी रखा जा चुका है। देश की शान लाल किला तक की देखरेख ना कर पाने वाली ब्राह्मणी सरकार ने देश की धरोहर को प्राइवेट लोगों के हवाले कर दिया है। महगाई मौत बन चुकी है। शिक्षा धन्ना सेठों के दुकानों में खुले आम बिक रही है। नारी समाज, वंचित जगत, आदिवासी समाज, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग हर पल खौफ में जी रहा है। कब किसकी हत्या हो जाये कोई भरोसा नहीं। देश बाबा साहेब के संविधान के बजाय मनुस्मृति से चलाया जा रहा है। न्यायपालिका, चुनाव आयोग जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थान ब्राह्मणी आतंकवादियों की दासी बन चुके है। पूरा का पूरा देश धू-धू कर जल रहा है। लपटों की गर्मी मात्र से इन्सानियत सिसक-सिसक कर दम तोड़ती जा रही है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। ब्राह्मणी आतंकवाद के इस त्रासदी के दौर में भारत को जो विकल्प दिखाई पड़ रहा है वो है- अम्बेडकरवाद, अम्बेडकरवादी बहुजन समाज पार्टी। लोगों की आखिरी उम्मीद है - अम्बेडकरवाद। इसी अम्बेडकरवाद में भारत की मुक्ति, ब्राह्मणवाद का सफाया और इन्सानियत का जीवन निहित है।
सामान्यतः अम्बेडकरवाद मतलब कि बाबा साहेब का दर्शन और उनके दर्शन पर आधारित सांसर। बसपा की विचारधारा, उसका एजेण्डा ही बाबा साहेब के सपनों का भारत है, संविधान की मंशा अनुरूप शासन है लेकिन फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि बसपा का कोई एजेण्डा नहीं है। यदि कोई एजेण्डा है तो जनता के सामने रखा जाये। बसपा अध्यक्षा को चाहिए कि देश के सामने अपना एजेण्डा रखें और लोकसभा चुनाव-२०१९ के सन्दर्भ में अपनी पार्टी का रुख बयां करें, स्पष्ट करे। लोगों की जुबां से ये सवाल सुनकर एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि लोग, ना चाहते हुए भी सवर्ण लोग तक अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही, बसपा को केंद्र में देखना चाहते है।
भारत के किसी भी मुद्दे को चर्चा में रखने से पहले हमें भारतीय समाज की मूलभूत संरचना को संदर्भ में रखना आवश्यक है। इसलिए भारतीय समाज में दलितों की मौजूदा सामाजिक स्थिति पर एक नज़र आवश्यक है। "ना चाहते हुए भी सवर्ण लोग तक अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही" वाक्यांश का इस्तेमाल हम इसी सामाजिक संरचना और दलितों की स्थिति और उसके राजनैतिक आंदोलन के संदर्भ में कर रहे है जो कि बहुजन समाज पार्टी के एक महत्वपूर्ण पक्ष को भी पूर्णतयः स्पष्ट करता है कि जितनी बार भी उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी वो देश के दलित समाज, उत्तर प्रदेश में जिसकी जनसख्या तक़रीबन २१.२%है, की एकता का परिणाम रहा है जिसकों अन्य जातियों ने पिछली ब्राह्मणी रोगियों की सरकारों के आतंकीराज से तंग आकर सपोर्ट किया।
इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि ये भारतीय समाज की सबसे बड़ी सच्चाई है कि प्रगतिशील से प्रगतिशील इन्सान भी दलितों से उतनी ही ईर्ष्या-जलन व नफ़रत करता है जितना कि एक खुला नारीविरोधी जातिवादी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी सनातनी ब्राह्मण-सवर्ण समाज। ऐसे में किसी दलित-वंचित का किसी भी पद पर या फिर सामान्य खुशहाल जीवन जीता हुआ कोई भी नहीं देखना चाहता है। ऐसे में हो सकता है कि ये स्वघोषित बुद्दिजीवी लोग मुझे ही जातिवादी घोषित कर दे जैसे कि हमारे महापुरुषों को आज तक घोषित करते आयें है। फ़िलहाल इनके द्वारा प्रदत्त किसी भी सर्टिफिकेट से हमारा कोई लेना-देना नहीं।
इसी कड़ी में आगे गौर करें तो हम पाते है अक्सर जातिवादियों का कहना है कि जातियाँ कमजोर हो रही है, लेकिन हमारा स्पष्ट मानना है कि समय के साथ और लोकतंत्र की मजबूरी के चलते जातिवादियों को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जातियाँ कमजोर हो रही है। परन्तु, हक़ीक़त तो ये कि जातियाँ जस की तस बनी हुई है, और दलितों के प्रति सबके मन में नफ़रत बढ़ती ही जा रही है। हमारे ख्याल से, दलितों के प्रति ब्राह्मणों-सवर्णों और अन्य ब्राह्मणी रोगियों की नफ़रत दो ही तरीके से खत्म हो सकती है। एक, दलित समाज मनुस्मृति को स्वीकार कर ले। दो, ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य ब्राह्मणी रोग से ग्रसित समाज अम्बेडकरवाद को, मानवता को अपना ले। जहाँ तक रही बात पहले तरीके की तो वो अब कभी होना ही नहीं है। ऐसे में सिर्फ एक ही तरीका बचता है कि ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य ब्राह्मणी रोग से ग्रसित समाज जितनी जल्दी हो सके अम्बेडकरवाद को, मानवता को अपना ले और मानव बन जाये।
फ़िलहाल अब हम वापस बसपा के लोकसभा चुनाव-२०१९ के एजेण्डे के सन्दर्भ में बात करते है। बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। इसलिए ये सच है कि ऑफिसियल तौर पर राजनैतिक दलों को अपने एजेण्डे देश के सामने रखने चाहिए। हमारे निर्णय में, "एजेण्डा" शब्द को किसी एक कार्यकाल तक बांधना गलत होगा। क्योंकि सिर्फ सत्ता का सुख भोगने वाली राजनैतिक पार्टियों के लिए एजेण्डा सिर्फ और सिर्फ एक कार्यकाल तक सीमित हो सकता है लेकिन एक ऐसी पार्टी जिसका मूल मक़सद ही सामजिक परिवर्तन है उसके संदर्भ में एजेण्डा का समय सिर्फ कार्यकाल तक सीमित करके देखना गलत होगा। ऐसे राजनैतिक दल के लिए उसका एजेण्डा उसके आन्दोलन का मूल होता है और वो सतत अपने उस मूल को प्राप्त करने और अपने एजेण्डे को लागू करने के लिए संघर्षरत रहता है। इस सन्दर्भ में बसपा एक ऐसी ही राजनैतिक पार्टी जिसका मूल मक़सद ही भारत की सामाजिक संरचना को बदलना है, समता मूलक समाज की स्थापना करना है, भारत को उसके इतिहास से परिचित कराना है।
हालांकि ये सच है कि राजनैतिक दल चुनाव के सन्दर्भ में एक कार्यकाल में "वो क्या-क्या करेगें" को सामन्यतः स्पष्ट करते है, और लोगों से वोट की अपील करते है। इस सन्दर्भ में बसपा को भी अपने एजेण्डे को स्पष्ट करना चाहिए। या यूं कहें कि बसपा अपने बहुजन आन्दोलन के मूल मक़सद को हक़ीक़त की सरज़मीं पर किस तरह से लागू करेगी, को जनता के सामने स्पष्ट करे तो इससे उसके सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को धार मिलेगी। और इससे, बहुजन आन्दोलन और अधिक सशक्त होगा। इसलिए यदि बसपा अपने सामाजिक परिवर्तन के मूल मक़सद को हकीकत की सरजमीं पर उतारने के तरीके को अपने शासन प्रणाली की छोटे-छोटे आयामों के जरिये बतौर चुनावी एजेण्डा - २०१९ स्पष्ट करे तो जहाँ एक तरफ जनता का बसपा में विश्वास बढ़ेगा वही दूसरी तरफ बसपा और भी अधिक मजबूत होगी।
फिर भी, यदि बसपा ऐसा कुछ नहीं भी करती है तो भी उसका एजेण्डा एक खुली किताब सदा स्पष्ट ही रहता है। इसका कारण यह है कि बसपा एक आंदोलन के परिणाम स्वरुप बनी पार्टी है, या यूँ कहें कि बसपा खुद ही बहुजन आन्दोलन का एक बहुत मजबूत और बहुत ही महत्वपूर्ण स्तम्भ है। राजनैतिक ही नहीं बल्कि भारत के हर सन्दर्भ में बसपा का पहला उद्देश्य ही यही है कि देश में संविधान सम्मत शासन हो। देश के बहुजन समाज (८५% आबादी) को उसका मूलभूत संवैधानिक व लोकतान्त्रिक हक़ और हुकूक मिले। देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर सबकी संविधान सम्मत राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक भागीदारी तय हो। देश की ८५% आबादी को मद्देनज़र रखते हुए क्या ये एजेण्डा नहीं है?
हालाँकि ये कह देना कि संविधान ही बसपा का एजेण्डा है, ये एक अस्पष्ट व वृहद् लगता है। फिर भी जहाँ तक रही बात संविधान को एजेंडा कहने की तो ये सभी जानते है कि आज तक संविधान सम्यक तौर पर लागू हो ही नहीं पाया है। ऐसे में यदि पहली बार कोई संविधान को सम्यक तौर पर लागू कर देश को संविधान सम्मत शासन-प्रशासन देने की बात कर रहा है तो इससे बड़ा एजेण्डा और क्या हो सकता है?
दलितों के प्रति लोगों के मन की नफ़रत को मद्देनज़र नज़र रखते हुए, और बसपा व बहुजन समाज के आन्दोलन के संदर्भ में यदि बहन जी प्रधानमंत्री ही बन जाये तो ये खुद ही बहुजन आन्दोलन और बहुजन समाज के राजनैतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक सशक्तिकरण के लिए भी एक अहम् सफलता है। ये स्थापित सत्य है कि विखण्डित भारत का हर जाति वाला जितनी नफ़रत "चमार जाति" से करता है उतना किसी से भी अन्य जाति से नहीं करता है। ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य ब्राह्मणी रोगियों के नफरतों की मोटी-मोटी मजबूत दीवारों को ध्वस्त करते हुए यदि एक वंचित जगत की नेत्री देश की हुक्मरान बन जाए, तो क्या ये एजेण्डा नहीं है?
बहुजन समाज पार्टी की लड़ाई तो नारीविरोधी जातिवादी सामंती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी सनातनी हिन्दू समाज को सबसे पहले ये मनवाने की ही है कि जिस कौम से ब्राह्मणी रोगी बेपनाह नफरत करते है वो इस देश का हुक्मरान है, और आगे भी ये बहुजन समाज के लोग हुकूमत करते रहेगें, भारत के राजनीति की दिशा व दशा तय करते रहेगें। ब्राह्मणी रोगी जिस कौम को अपना गुलाम समझते आ रहे है, और उनके साथ जानवरों से भी बद्तर सलूक करते आ रहे है, उस समाज का भारत पर हुकूमत करने के लिए अग्रसर होना, सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ता आ रहा दलित-बहुजन समाज, ब्राह्मणवाद के कारण सदियों से गुलामों से भी बद्तर जिंदगी जीता आ रहा दलित-बहुजन समाज, की लोकतान्त्रिक सत्ता पर प्रबल व सतत दावेदारी, और बहुजन समाज की खुद की हुकूमत के लिए लगातार संघर्ष, इस संघर्ष को राजनैतिक पटल पर सक्रियता से स्थापित कर देने की बेताबी, क्या ये सब एजेण्डा नहीं है?
बसपा यदि संविधान को सही ढंग से लागू करने को ही ऑफिसियल एजेण्डा घोषित कर दे, जो बसपा अपने हर चुनाव में करती रहती है और बहुजन महानायिका अपने भाषणों में कहती आ रही है, तो ये देशहित में, बहुजन समाज के हित में सबसे बड़ा व सबसे महत्वपूर्ण एजेण्डा होगा। ये स्थापित सत्य है कि आज़ादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी आज तक संविधान को उसकी आत्मा के अनुसार लागू नहीं किया गया है बल्कि ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि ब्राह्मणी सरकारों ने संविधान को ताख पर रखकर ब्राह्मणवाद को मजबूत करने का काम किया है। यही वजह रही है कि बहुजन समाज का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व आज भी पूरा नहीं हो सका, छुआछूत कायम है, जाति का घाव गहराता ही जा रहा, दलित-बहुजन समाज के प्रति ब्राह्मण-सवर्ण समाज व अन्य ब्राह्मणी रोगियों की नफ़रत, ईर्ष्या बढ़ती जा रही है, बहुजन समाज की शिक्षा का स्तर उत्साहजनक नहीं है, आर्थिक विषमता भी लगातार बढ़ती ही जा रही है, देश में ना तो दलित-आदिवासी सुरक्षित, ना अल्पसंख्यक सुरक्षित है, और ना ही नारी समाज सुरक्षित है, लोगों के पास रोजगार नहीं, विकास के नाम पर देश की संपत्ति का निजीकरण किया जा रहा, आरक्षण को लगभग ख़त्म किया जा चुका है, न्यायपालिका में बहुजन समाज की भागीदारी शून्य है, रिजर्वेशन इन प्रोमोशन के लिए संघर्षरत होना, लोगों की सामाजिक सुरक्षा के लिए आवाज उठाना, ऐसे में संविधान को इसकी आत्मा के अनुरूप लागू कर भारत को सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक बुराइयों से निजात दिलाने की बात करना, क्या ये बसपा का एजेण्डा नहीं बयां करता है?
संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट तौर पर लिखित समाजवाद को सम्यक रूप से लागू करना, लोगों के मूलभूत मानवाधिकारों की रक्षा करना जिनका लगातार हनन हो रहा है, दमन हो रहा, ग्रामीण अंचल का उत्तर प्रदेश के बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ग्राम विकास योजना के तौर पर समग्र विकास, शिक्षा के लिए सावित्रीबाई फुले बालिका इण्टर कॉलेज, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, महामाया विश्वविद्यालय, मान्यवर काशीराम अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय, शकुंतला देवी विकलांग विश्वविद्यालय, जो कि भारत में विकलांगों के लिए इकलौता विश्वविद्यालय है, बहुजन नायकों को भारतीय इतिहास व बुद्धिज़्म से जनमानस का परिचय कराना तथा उनकों भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के फलक पर मजबूती से स्थापित करना, शिक्षा-शान्ति-समृद्धि-ज्ञान व मानवता का सन्देश देने वाले महामानव बुद्ध और बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के सन्देश को हर इन्सान तक मानवीय ढंग से पहुँचाना, क्या बसपा के कार्यकाल में किये गए ये उत्कृष्ट कार्य बसपा का एजेण्डा सेट नहीं करते है?
हमारा स्पष्ट मानना है कि मूलभूत सुविधाओं और मानवाधिकारों से वंचित, सामाजिक गैर-बराबरी, आर्थिक विषमता व राजनैतिक विकलांगता का दंश झेलते समाज में, लोक-लुभावन एजेण्डा उन पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है जो टीवी, फ्रिज, लैपटॉप बाँटकर, जुमले फेंककर, जनता से छल करके, आतंकवादियों के आतंक की बदौलत देश को जाति और मज़हब के नाम पर ध्रुवीकरण करके, जल-जंगल-जमीन को धन्नासेठों के हाथों बेंचने वाले, देश की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत लालकिला आदि को गिरवी रखकर, पाकिस्तान और चीन का डर दिखाकर सत्ता पर कब्ज़ा करने आये है। लोक-लुभावन एजेण्डा उन ब्राह्मणी रोगी राजनैतिक दलों के लिए ज्यादा मायने रखता है जो कभी देश के विकास के नाम पर, तो कभी गरीबी हटाओं आदि के नाम पर सत्ता का सुख भोगने के लिए राजनीति में आएं है, ब्राह्मणवाद की आतंकी विचारधारा को प्रत्यक्ष (भाजपा) और अप्रत्यक्ष (कांग्रेस, कम्युनिस्ट, आम आदमी व अन्य ब्राह्मणी रोगी राजनैतिक दल) तौर पर लागू करने के लिए आये है। ये स्थापित सत्य है कि बसपा के नाम से ही ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य ब्राह्मणी रोगियों को जितनी दिक्कत होती है, भारत में मौजूद किसी अन्य पार्टी से नहीं होती है। लोकसभा चुनाव-२०१४ में शून्य और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-२०१७ में मात्र १९ सीट जीतने, मीडिया द्वारा बसपा के खिलाफ सिर्फ और सिर्फ दुष्प्रचार करने, और बिना किसी फॉर्मली घोषित एजेण्डे के बावजूद देश की ८५% की बहुजन आबादी के ज़हन में और भारत के राजनैतिक पटल पर बसपा का चर्चा के केंद्र में बने रहना ही बताता है कि बसपा खुद में ही एक बहुत बड़ा और बहुत ही महत्वपूर्ण एजेण्डा है।
हमारे निर्णय में, राजनीती का मतलब सिर्फ और सिर्फ सत्ता हासिल करना मात्र नहीं है। यदि कोई पार्टी सत्ता में रहें तो जन हित में कार्य करना, संविधान को सम्यक रूप से लागू करना व लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना, और यदि विपक्ष में रहें तो लोगों की आवाज को, अल्पसख्यकों की आवाज को हुकूमत के बहरे कानों तक पहुँचाना, लोगों के हित में सरकार तक को मजबूर करना, हुकूमत को तानाशाह बनने से रोकना, हुकूमत संविधान सम्मत कार्य करे इसके लिए सत्तासीनों पर पैनी नज़र गड़ाये रखने और उसकी समीक्षा करने का नाम है राजनीति। यदि हम बसपा और इसकी माननीय अध्यक्षया की तरफ गौर करे तो हम पाते है कि बसपा और इसकी माननीय अध्य्क्षया में ये सारे गुण मौजूद है। जहाँ एक तरफ उत्तर प्रदेश में बसपा की हुकूमत, उसके विकास कार्य, कानून व्यवस्था, शिक्षा के क्षेत्र में अहम् योगदान, भूमि का विकेन्द्रीकरण, अपराध पर लगाम और तीव्र गति से सामाजिक परिवर्तन की तरफ उसकी अग्रसरता और वंचित-बहुजन जगत का सशक्तिकरण बसपा की कार्य-शैली व उसके भावी एजेण्डे को बतलाता है वहीं दूसरी तरफ ऊना की घटना को जब बसपा की अध्यक्षया ने राज्यसभा के पटल पर उठाया तो वो राष्टीय मुद्दा बन गया, सहारनपुर मुद्दे को उठाया तो देश के महत्त्व का मुद्दा बन गया, एक गठबन्धन की तरफ इशारा मात्र किया तो मौजूदा ब्राह्मणी सरकार की जड़ें तक हिल गयी। क्या यह सब बसपा के अघोषित एजेण्डे को नहीं दर्शाता है?
ऐसे हमारा स्पष्ट मानना है कि यदि देश की बहुजन जनता ये कहती है कि "देश का संविधान" ही बसपा का एजेण्डा है तो इसका मतलब साफ़ है कि देश में आज तक संविधान सम्यक तौर पर लागू नहीं किया गया है, जो कि एक तथ्य है। ऐसे में संविधान को पहली बार समुचित रूप से लागू करने की बात बसपा या उस देश की जनता कर रही है तो इससे बड़ा और इससे महत्वपूर्ण एजेण्डा और क्या हो सकता है?
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली